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________________ अष्टादश अध्याय २६१ कृषिगोरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम् । परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम् ॥ ४४ ॥ अन्वयः। कृषिगोरक्ष्यवाणिज्यं ( कृषिः गोरक्ष्यं पशुपाल्यं वाणिज्यं १ क्रयविक्रयादिः) स्वभावजं वैश्यकर्म; परिचर्यात्मकं ( शुश्रुषास्वभावं) कर्म शूद्रस्य अपि स्वभावजम् ॥ ४४ ॥ अनुवाद। कृषि गोरक्ष्य और वाणिज्य यह सब कर्म वैश्योंके स्वभावज है; परिचयात्मक कही शद्रोंके स्वभावज कर्म है ।। ४४ ।। व्याख्या। क्षेत्र कर्षण करनेका नाम कृषि है। इस शरीररूप क्षेत्रमें प्रश्वास और निश्वासरूप कर्षण (गुरूपदेशसे ) यथाविधि करने से सुफल होता है। गोरक्ष्य गो शब्दमें पृथिवी अर्थात् यह सम्यक शरीर है। इसकी रक्षा करनेका भ्रम मनमें रखना (परन्तु यह शरीर उत्पादिभंगुर है, कभी भी रक्षा न होगी) सुपथमें चलनेवाला मनके वशमें इन्द्रियों को रखना ही गोरक्ष्य है। वाणिज्य = अपना लाभ रख करके लेनदेन करना-कुछ लेना कुछ देना। इस प्रकार फलाकांक्षाके साथ क्रिया करना जिस साधकका संस्कारज अभ्यास है वही वैश्यपद वाच्य है। तथापि यह पुरुष द्विज है ( १७ अ: १४ श्लोक )। क्रिया करते रहनेसे कालान्तरमें इसीसे वह क्रमोन्नति और मुक्तिको पावेगा। और स्त्री-पुत्रादि-संसारमें गाढ़ आसक्त क्रिया करनी नहीं चाहते। भयके मारे कर सकते नहों तथापि इन तीन प्रकारके साधकोंकी सेवा करनेके लिये जिनका मन सदाकाल चाहता है, उन्होंको शूद्र कहते हैं। यह सुमतिमान लोग भी उस प्रकारकी सेवा करते रहनेसे साधकोंके साथ प्रसंग क्रममें आत्मतत्त्व ज्ञानका सम्भाषण सुनते सुनते परम कल्याण लाभ करते हैं ॥४४॥
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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