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________________ १४८ . श्रीमद्भगवद्गीता निकटवत्ती स्थान, रणस्थल, देवालय इत्यादि यह सब साधनके स्थान हैं। स्वभावतः यह सब स्थान पवित्र होने पर भी गोमय आदिसे परिष्कार करके व्यवहार करना चाहिये। ये तो बाहर की बात हुई । और भीतरकी वही सुषुम्ना-संलग्न ब्रह्मनाड़ीमें मूलाधारादि स्थान समूहको गुरूपदिष्ट प्रकारसे व्यवहार करना। जिनका संस्कार न हुआ हो ऐसे प्रकृति के लोगोंके साथ सब व्यवहार तोड़ देना, अर्थात उन लोगोंसे कुछ सम्पर्क न रखना। ब्रह्मादि स्थावरान्त जगत्के प्रत्येक अणु परमाणुओंमें अहमत्व प्रतिपादन करना अर्थात् सबही ब्रह्म है, इसे ही दृढ़ताके साथ अपने अन्तःकरणमें बोध कर लेनेका नाम "अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं" है । तत्त्व विश्वरूप है; इस तत्त्वके ज्ञानका अर्थ ब्रह्म है, जो अवधि रहित महान् है। इन दोनोंको मिलाकर एक करके संसार-भावमें उपेक्षा करना ही "तस्वज्ञानार्थ-दर्शन” है। इन्हीं सबको ज्ञान कहते हैं; और इनके विपरीत जो कुछ है, उसीको अज्ञान कहते हैं। (“तत्त्वज्ञोऽसि यदा पार्थ तुष्णीम्भव तदा सखे । यत्दृष्टं विश्वरूपं मे मायामानं तदेव हि ॥ तेन भ्रान्तोऽसि कौन्तेय स्वस्वरूपं विचिन्तय । मुह्यन्ति मायया मूढास्तत्त्वज्ञा मोहवर्जिताः॥")॥८॥६॥ १०॥ ११ ॥ १२ ॥ ज्ञेयं यत्तत् प्रवक्ष्यामि यज्ञात्वामृतमश्नुते । अनादिमत् परं ब्रह्म न सत् तन्नासदुच्यते ॥ १३ ॥ अन्वयः। यत् ज्ञेयं तत् प्रवक्ष्यामि, यत् ज्ञात्वा अमृतं अश्नुते (मोक्ष प्राप्नोति, न पुनम्रियते); तत् अनादिमत् परं ब्रह्म न सत् न असत् उच्यते (विधिमुखेन प्रमाणस्य विषयः सच्छब्देनोच्यते, निषेधविषयस्तु असच्छब्देनोच्यते, इदन्तु तदुभयविलक्षणं अविषयत्वादित्यर्थः ) ॥ १३ ॥ अनुवाद। जो ज्ञय है, उसे कहता हूँ। जिसके जाननेसे अमृतत्व लाभ होता है, वह अनादिमत् परब्रह्म, सत भी नहीं कहा जाता है और असत् भी नहीं कहा जाता ॥ १३ ॥
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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