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________________ अष्टादश अध्याय ३०१ है। दीक्षाके पश्चात् अभ्यास द्वारा उस प्रावरणको हटाना पड़ता है। आवरणको हटा सको तो उस चक्षुसे भूत, भविष्यत् तथा वर्त्त-.. मान सब देखा जाता है। शास्त्रमें उस चक्षुको दिव्यचक्षु, तृतीय नेत्र, ज्ञानचक्षु, प्रज्ञाचक्षु प्रभृति नाना नामसे वर्णना किया है। गुरुदेव उस चक्षुको खोल देते हैं, इस कारण गुरु प्रणाममें है-"चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः।" . संस्कार होनेके पश्चात् हो शूद्रत्व जाकर द्विजत्व आता है। इस संस्कारको द्वितीय जन्म कहते हैं। एक जन्म मातृगर्भसे वहिर्जगत्में भूमिष्ठ होना है, और दूसरा जन्म दीक्षासंस्कार द्वारा संस्कृत होना है, जिससे बहिर्विषय छोड़ करके अन्तर्जगत्का विषय लक्ष्य होता रहता है। जैसे मातृगर्भसे जन्म होनेसे प्राणक्रिया अन्तर्मुख गति छोड़ करके बहिर्मुख गति लेती है, अर्थात जन्मके साथही साथ उसका भी जन्म होता है, उसी संस्कार द्वारा द्विज होने से ही प्राणक्रिया भी उसके साथ ही साथ रूपान्तरित हो करके क्रम अनुसार अन्तर्मुख होती रहती है, मानो उसका भी नवीन रूपसे जन्म हुआ। वह भी जन्मके साथ ही साथ जन्मती रहती है, कारण द्विजत्वके ब्राह्मणादि विभिन्न स्तर अनुसारसे इस सहज क्रियाका भी प्रकार भेद होता है। प्राणकी बहिर्मुख गतिसे जैसे विषयाकारा वृत्तिका उदय होता है उसी प्रकार प्राणके अन्तमुख गति लेनेके साथ ही साथ भिन्न भिन्न प्रकारकी वृत्तिका उदय होता है, और तदनुरूप भिन्न भिन्न प्रकारके कर्मों का अनुष्ठान करना पड़ता है। वे सब कर्म तात्कालिक प्राणक्रियाके पोषक तथा बर्द्धक हैं; इसलिये वे सब अवश्य कर्त्तव्य कर्म हैं। इस कारण उन्हें भी सहज कर्म वा स्वभावज कर्म कहते हैं। प्रत्येक साधकको ही साधन-जीवनमें शूद्र, वैश्य, क्षत्रिय और ब्राह्मण पर पर क्रमोन्नत यह चार अवस्था भोगनी होती है। प्रत्येक अवस्था के प्राणक्रियाके उपयोगी पृथक् पृथक् स्वभावज कर्म विहित हैं। उन
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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