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________________ २५३ सप्तदश अध्याय अनुदूगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितच यत्। स्वाध्यायाभ्यसनचव वाङमय तप उच्यते ॥ १५ ॥ अन्वयः। अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितश्च यत् ( श्रोतुः प्रियं हितश्च परिणामे सुखकरं ) स्वाध्यायाभ्यसनं च एव ( वेदाभ्यासश्च ) वाड मयं तपः सच्यते ॥१५॥ अनुवाद। अनुगकर वाक्य, और जो सत्य प्रिय एवं हितकर है, तथा वेदाभ्यास-इन सबको वाङमय तप कहा जाता है ।। १५ ॥ व्याख्या। जब सच्ची बात, लोगोंकी प्रिय और हितकर कथा,, तथा किसीका उद्वग न हो ऐसी कथा श्राप ही आप मुहसे बाहर होती हैं, तब हो संयतवाक् अवस्था कही जाती है। जब "देह मैं हूँ" यह बोध मिटकर सर्वभूतात्मभूतात्मामें (व्यापक चैतन्यमें ) मिल कर व्याप्ति लेके बैठ रहता हूँ, तब ही स्वाध्याय शब्दका अर्थ प्रकाशित होता है। 'स्व' शब्दमें स्वर्ग, स्तर, वा ईश्वर रूपका नामान्तर, और अध्याय शब्दमें प्राप्तिक व्याप्ति (क्रियाकी परावस्था) है। इन सबके क्रियाकालमें मुहसे कथा बाहर आनेसे भी अधिक कथा कहनी नहीं होती, इस करके संयतवाक हुआ जाता है, और व्याप्तावस्था ले करके बैठ रहनेसे कथा कहनेका अक्सर नहीं आता 'इसलिये संयतव क् हुअा जाता है। इसलिये इस प्रकार अवस्थाको वाङमय तप कहते हैं ॥ १५ ॥ मनःप्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः । भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते ॥ १६ ॥ अन्वयः। मनःप्रसादः ( मनसः प्रशान्तिः) सौम्यत्वं ( अकरता) मौनं (मुने यो मननमित्यर्थः ) आत्मविनिग्रहः ( मनसः विषयेभ्यः प्रत्याहारः ) भावसंशुद्धिः ( व्यवहारे मायाराहित्यं ) इत्येतत् मानसं तपः उच्यते ॥ १६ ॥ अनुवाद। मनकी प्रसन्नता, सौम्यभाव ( अकरता ), मौन, आत्मविनिग्रह, - भाषसंशुद्धि इन सबको मानस तप कहा जाता है ॥ १६ ॥
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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