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________________ अष्टादश अध्याय २७३ अनुवाद। जिसका अहंकृत भाव नहीं है, जिसकी बुद्धि लिप्त नहीं होती, वह पुरुष इन समस्त लोकोंको हनन करके भी हनन नहीं करता और ( तत्फल में ) निबद्ध भी नहीं होता ॥ १७ ॥ - व्याख्या। जिस पुरुषको क्रिया द्वारा "मैं" भाव निश्चय हो चुका, जिसकी बुद्धि अपनेको कर्त्ता कह करके स्वीकार करने के लिये अवसर नहीं पाती, जो अपने में ही अच्युत भावसे आप रहता है, आदि-अन्त-मध्ययुक्त किसीमें लिप्त नहीं होता; उसके शरीरके हिलने डोलनेसे (जैसे सो रहा हूँ बिछौनेमें खटमल काटता है, करवट ले लिया, निद्राके आवेगसे खटमल मर गये ) इस लोक-जगत्में ऐसे ऐसे हत्याके कार्य हो जानेसे भी वह हननकर्ता नहीं होता, वा वधके लिये कर्मफलके बन्धनमें नहीं फंसता ( २य अः १७ से २१ श्लोक तक देखो)॥ १७ ॥ ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना । करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसंग्रहः ॥ १८ ॥ अन्वयः। ज्ञानं ( इष्ठसाधनमेतदिति बोधः ) ज्ञेयं ( इष्टसाधनं कर्म ) परिज्ञाता ( एतद्ज्ञानाश्रयः) एवं त्रिविधा कर्मचोदना ( कर्मप्रवृत्तिहेतुः) करणं ( साधकतम ) कर्म ( कत्त रीप्सिततमं ) कर्ता व ( क्रियानिवत्तकः ) इति त्रिविधः कर्मसंग्रहः ( कर्म संगृह्यते अस्मिन् इति कर्मसंग्रहः करणादित्रिविध कारक क्रियाश्रय इत्यर्थः ) ॥ १८ ॥ .. अनुवाद। ज्ञान, ज्ञेय और परिज्ञाता, ये तीनों धर्मप्रवृत्तिके हेतु हैं; करण, कम और कर्ता ये तीन प्रकारके कर्मसंग्रह अर्थात् क्रियाके आश्रय हैं ॥ १८॥ . व्याख्या। जैसे घट एक कार्य है, इसका हेतु है-कुम्भकार ( कर्ता ), मृत्तिका ( अधिष्ठान ), कुलालचक्र दण्ड आदि ( करण ), हस्तसञ्चालनादि क्रिया (चेष्टा ) और कुम्भकारके घट निर्माणका संस्कार (देव)। घटको निर्माण करनेके लिये ये पांचों प्रयोजनीय हैं। परन्तु इन पांचोंके रहनेसे ही क्या घट तैयार होता है ? अर्थात् -१८
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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