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________________ षोड़श अध्याय २२७ अनुवाद। (क्योंकि ) अहंकार, बल, दर्प, काम क्रोधका आश्चय करके पराये गुणमें दोषको आरोपित करनेवाले वे सब असुर लोग आत्मदेहमें तथा परदेहमें मुमको द्वेष करके ( यजन करते रहते हैं)॥१८॥ व्याख्या। इन सब पासुरिक स्वभावके लोग आप गुणहीन मूर्ख हो करके भी विद्वान और गुणियोंकी मर्यादा अपनेमें ले करके विद्वान और गुणी बनकर, सन्मार्गवत्तियोंके गुणमें दोषका आरोप करते रहते हैं, तथा घोर अविद्याके प्रकाश अहंकार, बल, दर्प, काम और क्रोधका आश्रय करके सर्व अनर्थके मूल होते हैं। ऐसे कि इस जगत् में जितने स्त्री, पुरुष, जीव, जानवर, पैदा हुए हैं, सब उन लोगोंके ही भोग-सुख-चाकरीके लिये सृष्ट हुए हैं ऐसा मानते हैं। एक ही चिदंश जो “मैं” रूपसे उन लोगोंके अपने देहमें तथा पराएके देहमें है, वे लोग उसे नहीं मानते, हृदयमें धारणा भी नहीं कर सकते। अतएव वे लोग अपने देहमें तथा पराएके देहमें स्थित प्रकृत "मैं" का द्वष करते रहते हैं। क्योंकि यह सब असुर प्रकृतिके लोग अपने देह को ही “मैं” मानते हैं, देहके ऊपर ही उन लोगोंकी "मैंत्व” बुद्धि प्रयुक्त होती है; देह छोड़ करके स्वतन्त्र जो एक आत्मा है, वही जो एकमात्र “मैं” शब्द वाच्य और सर्व देहमें समान भावसे विराजमान है, उसे छोड़ करके यह देह (जो दहन होता है ) “मैं” शब्द वाच्य नहीं हो सकता, वे लोग उस वचनको धारणामें भी नहीं ला सकते । इसलिये वे लोग जो कुछ काम काज करते हैं, उसीमें ही "मैं कर्ता, मैं भोक्ता" इस प्रकारकी धारणासे उन लोगोंके अपने देहमें स्थित उसी यथार्थ "मैं” को द्वष करना होता है, और अपनी ही भोग्यवस्तु समझके प्राणी वध और प्राणी पीड़नादि द्वारा पराए देहमें भी उसी "मैं” को द्वष करना होता है। इस कारणसे उन सबकी यजन क्रिया अविधिपूर्वक होती है, विधिपूर्वक नहीं होती ॥ १८ ॥
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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