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________________ अष्टादश अध्याय २८३ अनुवाद । हे पार्थ ! हे अर्जुन ! परन्तु जिस धूतिसे ( मनुष्य ) धर्म, काम और अर्थको धारण करते हैं तथा प्रसंग क्रमसे फलाकांक्षी होते है, उसीको राजसी धृत्ति कहते है ॥ ३४ ॥ व्याख्या। और जब वह मन, प्राण और इन्द्रियोंकी क्रिया, मुक्तिमार्ग-वहिष्कृत धर्म-अर्थ-कामकी आलोचना करके, भोग लालसा की तृप्तिमें मतवाला रहती है, हे पार्थ! यह जो धृति है, इसीको राजसी धृति कहते हैं ॥ ३४ ॥ यया स्वप्नं भयो शोकं विषादं मदमेव च । न विमुञ्जति दुर्मेघा धृतिः सा पार्थ तामसी ॥३५॥ अन्वयः। हे पार्थ! यया दुर्मेधाः (कुत्सित्मेधाः पुरुषः ) स्वप्नं ( निद्रा ) भयं शोकं ( संतापं ) विषादं ( अवसादं ) मदं एव च न विमुञ्चति (धारयत्येव ), सा तामसी धृतिः ॥ ३५॥ अनुवाद। हे पार्थ ! जिस धृतिसे दुर्मेधागण निद्रा, भय, सन्ताप, विषाद और मदको परित्याग नहीं कर सकते, उसीको तामसी धृति कहते हैं ॥ ३५ ॥ - व्याख्या। और जब जाग्रत तथा स्वप्नावस्था में स्वप्न, भय, शोक, विषाद और मदको ले करके मैं बैठा रहूँ, एकको भी छोड़ तो मेरा जैसा सर्वनाश होगा, ऐसा मालूम होता है, ऐसी जो आत्महाराधारणावती शक्ति है, हे अर्जुन ! इसीको तामसी धृति कहते हैं ॥३५॥ सुखं त्विदानी त्रिविध शृणु मे भरतर्षभ ! ... अभ्यासाद्रमते यन्न दुःखान्तं च निगच्छति ॥ ३६ ॥ अन्धयः। हे भरतर्षभ ! इदानीं तु त्रिविध ( सुखं सुखस्य त्रैविध्यं ) मे शृणु, यत्र ( यस्मिन सुखे ) अभ्यासात् रमते (परमानन्दं लभते ) दुखान्तं च निगच्छति ( प्राप्नोति ) ॥ ३६॥
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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