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________________ श्रीमद्भगवद्गीता - अनुवाद । “दान करना उचित है यह विवेचना करके जो दान पुण्यदेशमें पुण्यकालमें अनुपकारी सत्पात्रको दिया जाता है, उसी दानको सात्त्विक दान कहते है ॥२०॥ व्याख्या। सत्पात्र ( ब्रह्म ), देश (योगशास्त्रका विष्णुपद ), काल (क्रियाकी परावस्था); इन देश काल और अनुपकारी पात्रमें (ब्रह्ममें क्रियाकी सम्भावना नहीं, इसलिये प्रत्युपकार भी नहीं है ) जो मायिक असत् अवस्तुकी प्रक्षेप-इच्छा (दान ) है, उसीको साविक दान कहते हैं ॥२०॥ यत्त प्रत्युपकारार्थ फलमुद्दिश्य वा पुनः । दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम् ।। २१॥ . अन्धयः। यत् तु प्रत्युपकारार्थ फलं ( स्वर्गादिकं ) उद्दिश्य वा पुनः परिक्लिष्ट च (चित्तक्लेशयुक्त यथा भवत्येवंभूतं ) दीयते, तत् दानं राजसं स्मृतं ॥ २१ ॥ अनवाद। परन्तु जो दान प्रत्युपकार प्राप्तिको इच्छासे किम्बा फलाकांक्षाके लिये अथवा चित्तके क्लेशके साथ दिया जाता है, उस दानको राजसदान कहा जाता है॥२१॥ व्याख्या। क्रियाकालमें कच्चे अभ्यासके लिये ब्रह्ममार्गसे भ्रष्ट हो करके देव, ऋषि, पितृगणमें मिलकर समाधि लेनेसे जो आत्मसमर्पण होता है, वह कष्टका दान है। क्योंकि परिश्रम तो किया ब्रह्ममें लयके लिये, परन्तु आत्मसमर्पण हुआ देव, ऋषि तथा पितृलोकमें। इसका फल हुमा स्वर्गादि भोगके बाद पुनः संसारमें प्रवेश; फिर यही दुःख सुख हंसी रोलाईकी झगड़ा। इसलिये इस प्रकारके दानको राजस दान कहते हैं ।। २१॥ . अदेशकाले यहानमपात्रेभ्यश्च दीयते । असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम् ॥ २२ ॥ अन्वयः। अदेशकाले अपात्रेभ्यश्च यत् दानं दीयते तत् असत्कृतं ( सत्कारशून्यं ) अवज्ञातं ( पात्रतिरस्कारयुक्त ) दानं तामसं उदाहृतम् ॥ २२॥
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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