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श्रीमद् भगवद् गीता
१म
-६ष्ट प्रः
१मा - साधक मायाके वशमें "अहं ममेति” संसार मोहमें
मोहित रहनेके लिये पहले ही वैराग्य द्वारा संसार बासनाको नाश करनेमें उद्यत होते ही विषादग्रस्त
होते हैं। रय - गुरुकृपासे सांख्यज्ञानसे सत् और असत्की पृथकता
समझते हैं। ३य मा - कर्मानुष्ठानमें प्रवृत्त होते हैं। ४ श्रः - कर्ममें अभिज्ञता लाभ करते हैं। .. ५ म अः – प्राणापानकी समता साधन पूर्वक शुद्धचित्त होके कम
का वेग नाश करते हैं। ६ ष्ट श्रः -- स्थिर धीर अवस्था प्राप्त होकर ध्यान में प्रवृत्त होते हैं ।
यही छ। अध्याय है गीताका कर्मकाण्ड । ....... ७ म अः - ध्यानके फलसे क्रमानुसार ज्येय वस्तुके सामिप्य ब्रह्म
होकर साधक ज्ञान-विज्ञानविद् होते हैं। ८ ममः - तारक ब्रह्मयोग । अपुनरावृत्ति गति प्राप्ति । हम श्रः - सर्व विभूति लाभ।