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________________ २०३. पञ्चदश अध्याय में भी उस तत्पदमें पहुंचने वाली शक्ति नहीं है। परन्तु यह विष्णुका परमपद ही अपने तेजः प्रभावसे उन तीनों ज्योतिष्कों को प्रकाश कर रहा है। इस तद्विष्णुका परमपदको प्राप्त होनेसे संसारमें फिर पुनरावृत्ति नहीं होती, यही “मैं” का परमधाम ( विश्राम स्थान ) है ॥६॥ ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः । मनः षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ॥ ७॥ अन्वयः। मम (परमात्मनः ) एव अंशः जीवलोके ( संसार ) सनातनः ( पुरातनः ) जीवभूतः (भोक्ता कर्तेति प्रसिद्धः) सन् प्रकृतिस्थानि (प्रकृतौ स्वस्थाने कर्ण शष्कुल्यादौ स्थितानि ) मनः षष्ठानि मनः षष्ठः येषां तानि इन्द्रियाणि श्रोत्रादीनि कर्षति ( आकर्षति ) ॥ ७॥ अनुवाद। जीवलोकमें हमाराही अंश सनातन जीव स्वरूप हो करके प्रकृतिस्थित मन और श्रोत्रादि पञ्च इन्द्रियोंको आकर्षण करता है ॥ ७॥ व्याख्या। जब जीवको चिरन्तन क्रिया आवागमन है, तब जीव परमधाममें जानेसे फिर क्यों न लौट आवेगा? यह बात समझानेके लिये श्री भगवान कहते हैं कि, जीव हमारा ही अंश, तथा हमारा ही मायाभ्रमसे भिन्नभावापन्न हो रहा है; मायाका भ्रम जितने दिन रहेगा, उतने दिन आवागमन चलेगा; असंगरूप शस्त्रसे मायाभ्रमका मूल छेद करते मात्र ही भिन्नभाव मिट जाता है, मेरा अंश “मैं” में ही मिल जाता है और आने जाने नहीं होता। ____ इस भावको दृष्टान्त दे करके समझाया जाता है कि-जैसे एकही , सूर्यरश्मि जलतरंगके ऊपर पड़ करके असंख्य जलसूर्य होता है, तेसे एक परमात्माका प्राकृतिक तरंगमें प्रतिफलित होनेसे इस असंख्य जीव रूपकी सृष्टि हुई है। वह जलसूर्य जैसे जलके वशसे नाचते रहते हैं, तैसे जीव प्रकृति के वशसे मनः पष्ठ इन्द्रिय युक्त हो करके कर्म करता रहता है। फिर जैसे जलतरंग मिट जाने के पश्चात् बहु बिम्ब आपही
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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