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________________ २१४ श्रीमद्भगवद्गीता अर्थात् माया-व्यापारका जाल फाड़ चिर फेंककर इस “मैं” में श्रा पड़ते हैं, वे सर्वविद् हो करके अर्थात् जिसको सब जाननेका जानना कहते हैं उसे ही जान करके "मैं" के भजनमें डूब जाते हैं। अर्थात् सर्व मावमें ही वे साधक अपनेमें इस मैं बिना और कुछ भी देखने नहीं पाते ॥ १६ ॥ इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ । एतद्बुद्ध्वा बुद्धिमान् स्यात् कृतकृत्यश्च भारत ॥२०॥ अन्वयः। हे अनघ ! इति ( अनेन संक्षेपप्रकारेण ) मया इदं गुह्यतमं (अत्यन्तं रहस्यं) शास्त्रं उक्त; हे भारत ! (योऽपि कोऽपि) एतत् ( मदुक्त शास्त्रं.) बुद्ध्वा बुद्धिमान् ( सम्यक ज्ञानी) च ( तथा ) कृतकृत्यः स्यात् ।। २० ॥ अनुवाद। हे अनघ ! इस प्रकार संक्षेपसे मैंने यह गुह्यतम शास्त्र कहा। हे भारत ! इसे समझनेके पश्चात् (जो कोई समझे ) सम्यक् ज्ञानी और कृतकृत्य होता है ।॥ २०॥ व्याख्या। हे निष्पाप! जिससे और गोपनीय कुछ भी नहीं, स्वयं माया भी जिनके प्रकाशसे प्रकाशित है; परन्तु जिसको प्रकाश करनेकी शक्ति नहीं रखती, उसी ब्रह्म-संवादको मैंने तुमसे वाणी विलास सदृश कथन कमसे इस अध्यायमें कहा है। इस संवादमें बुद्धिमान लोग बुद्धिका प्रयोग करके कृतकृत्य होते हैं अर्थात् सब प्रकार करणके पश्चात् जो चिर विश्राम ब्राह्मीस्थिति है, उसे ही पाते हैं; और उनके लिये कर्त्तव्यका अर्थ प्रयोग करनेका अवसर नहीं आता ॥ २०॥ इति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसवादे पुरुषोत्तमयोगो नाम पञ्चदशोऽध्यायः।
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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