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________________ २१६. षोड़श अध्यायः द्वौ भूतसौं लोकेऽस्मिन्दैव आसुर एव च। . देवो विस्तरशः प्रोक्त श्रासुरं पार्थ मे शृणु ॥ ६ ॥ अन्वयः। हे पार्थ । अस्मिन् लोके द्वौ ( द्विप्रकारौ ) भूतसौं (भूताना मनुष्याणां सौं स्वभावौ )-देवः आसुरश्च एव। देवः ( देवसर्गः ) विस्तरशः ( अभयं सत्त्वसंशुद्धिरित्यादिना विस्तरप्रकारेः) प्रोक्तः ( कथितः.) आसुरं मे ( ममः वचनादुच्यमानं ) शृणु ( अवधारय ) ॥ ६ ॥ अनुवाद। हे पार्थ! इस जगत्में दो प्रकारका भूतसर्ग है,-दध और आसुर । दैव विस्तर रूपसे कहा हुआ है, ( अब ) आसुर मुझसे श्रवण करो ॥ ६ ॥ व्याख्या। इस लोक-जगत्में जितने प्रकारके भूत (प्राणी ) हैं,. उन सबका दो प्रकारका सर्ग ( स्वभाव ) है। एक दैवी स्वभाव और दूसरा आसुरी स्वभाव । हम अध्यायका १२ वा श्लोककी राक्षसी और मासुरी दोनों प्रकृतिको ही यहाँ एक बातमें आसुरी सर्ग वा स्वभाव कहा हुआ है। मनुष्यका इन दोनों सर्गको ही सम्पद कह करके वर्णन किया गया है। देवीसम्पद विमुक्तिका कारण है, इसीलिये उपादेय और ग्रहणयोग्य है और आसुरीसम्पद निबन्धका कारण है, अतएव, हेय और त्याज्य है। जो सम्पद दैवी तथा ग्रहणीय है, जिसके रहने से मनुष्य देव-स्वभाव सम्पन्न होते हैं, उसे विस्तार रूपसे सारी गीता में ही कहा हुआ हैं, अर्थात् २य अध्यायमें स्थितप्रज्ञके लक्षणमें, १२ अध्यायमें भक्तके लक्षणमें, १३ वा में ज्ञानके वर्णनमें, १४ वां में गुणा-. तीत पुरुषके लक्षणमें और १६ शके १-३य श्लोकमें समझा दिया गया . है। और जो सम्पद आसुरी है जिसके रहनेसे मनुष्य असुर-स्वभाव सम्पन्न तथा राक्षस स्वभाव सम्पन्न होता है, इसलिये जो त्याज्य हैं उन सबको जानना चाहिये। अतएव अब भगवान उन सबका हो वर्णन करते हैं ॥६॥
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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