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________________ श्रीमद्भगवद्गीता कह करके हृदयमें कैसा एक आनन्दमय कम्पनका अनुभव होता है जिससे प्राण हर्षके मारे मतवाला होकर तुम्हारे अांखसे पानी फेकवा देता है ( परन्तु रोना नहीं)। तत्पश्चात् ही प्रलय अर्थात् समाधिस्थिति है। इन सब अवस्थाओंका जो आश्रय ले चुके हैं, उन्हींको सस्ववान् कहते हैं। सत्त्ववानोंके भीतर वह सत्त्व 'मैं' हूँ। क्योंकि ईदृश प्रकाश होनेसे ही भ्रमनाश होकर साधक हमसे मिल करके 'मैं' हो जाते हैं ॥३६॥ वृष्णीणां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनञ्जयः । मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविः ॥३७॥ अन्वयः। अहं वृष्णीणां बासुदेवः, पाण्डवानां धनञ्जयः, मुनीनां अपि व्यासः, ( तथा ) कवीनां उशना कविः (शुक्रः अस्मि ) ॥ ३७॥ ___ अनुवाद। वृष्णि वंशके भीतर में वासुदेव, पाण्डवों के भीतर में धनञ्जय, मुनिगणोंके भीतर में व्यास और कवियोंके भीतर मैं उशना कवि ( शुक्राचार्य ) हूँ ॥३७॥ व्याख्या। "वृष्णि"-वृष्=वर्षण करना + निः=कर्तृवाचक शब्द, अर्थात् जो लोग वर्षण * करते हैं, जैसे मेघादि; उन सबके भीतर मैं वासुदेव हूं ** ; जिसमें सर्वभूत वास करते हैं, और उस सर्वको जो वर्षण करते हैं, ऐसे योग्य पुरुष "वासुदेव” हैं। वृष्णि वंशमें उत्पत्ति हेतु वृष्णियोंके भीतर कहा गया। और मर्वको धारण वर्षण संकोचन करनेवाली (खुष्टि-स्थिति-प्रलयक्षम) शक्तिकी आवासभूमि 'मैं हूँ, इसलिये मैं वासुदेव हूँ। * जरासन्ध कुरुवंशको भीष्मके लिये जय नहीं कर सका। वृष्णिवंशको नीतिके लिये जय नहीं कर सका। वृष्णि लोग नीतिका वर्षणकर्ता है ।। ३७॥ ** "सर्वाणि तत्र भूतानि वसन्ति परमात्मनि। भूतेष्वपि च सर्षात्मा वासुदेवस्ततः स्मृता" ॥
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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