________________
अष्टादश अध्याय
३३५ एकमात्र ब्रह्मसूत्रका अवलम्बन करके शौर्य तेजादि स्वकर्मानुष्ठान द्वारा अविद्या अस्मिता प्रभृतिको नाश करके दान और ईश्वरभाव द्वारा शाम्भवीका प्रयोग करके एकबारगी "मैं” की-कूटस्थचैतन्य की-ईश्वरकी शरण लो; ऐसा होनेसे वह जो सर्वपाप है, जो तुमको विषयबन्धनसे बांधके भवघोर में फेंक कर बार-बार जन्म मृत्यु भोग करवाता है-लालसा रूपिणी मोहिनी शक्तिके मोहमें आत्महारा कर के अात्मविस्मृत करता है, उसी सर्वपापसे मैं तुमको मुक्त करूंगा। तुम कृतकर्मके फलसे अनेक बार दगा खाये हो, भोगबन्धनसे कातर हुए हो, इसलिये तुम इस उपस्थित साधन-समर के व्यापारमें फिर उस सर्वपापमें लिपट न जाओ यह विचार करके शोकके मारे विह्वल हुए हो; परन्तु 'मैं' की शरण लेनेसे तुम्हें उस पापमें लिपटना न होगा। कारण कि 'मैं' की शरण लेनेसे अर्थात् विषयमुखी इच्छा प्रवाहको घुमा देकर, ईश्वरमें --कूटस्थचैतन्यमें -एक अद्वितीय अहं स्वरूपमें फेंकनेसे 'मायामेतां तरन्ति'-इस मायाविकारका अधिकार पार हो जाता है। सुतरां कर्मराशि जितनी ही सचित रहें, वे सब कालक्रम करके प्रारब्ध रूपसे जब भोग देनेको आवेंगी, तब उस जीवको मायाविकारके अधिकारके भीतर प्राप्त न हो करके, आश्रयविहीन होकर, आपही आप ध्वंसको प्राप्त होंगे; 'मैं' की शरणमें रहनेसे 'नलिनीदलमम्बुवत्' पापम्पर्श नहीं होता। अतएव तुम्हारे शोकका कारण नहीं है, शोक मत करना ।
साधकके समझने के सुविधाके लिये इस आध्यात्मिक भावको ही प्रकारान्तर करके व्यक्त किया जाता है
सर्वधर्मान् =सों का धर्म खण्डभाव, संकीर्णता, नानात्व लेना है। वह नानात्व लेनाको दूर कर देनेसे ही मैं ही-मैं एक अखण्ड विस्तार होता है। तुम इस अखण्ड “मैं" का आश्रय करलो। इसके होनेसे ही तुम्हारा संकीर्ण खण्डभाव जो "तुम" है वह मिट जावेगा।