Book Title: Pranav Gita Part 02
Author(s): Gyanendranath Mukhopadhyaya
Publisher: Ramendranath Mukhopadhyaya

View full book text
Previous | Next

Page 342
________________ अष्टादश अध्याय ३३३ यह धर्म शब्दका अर्थ हुआ। जिसे पकड़के रहा जाता है इस आदिम अर्थमूलसे धर्म शब्द स्वभाव, गुण, कर्तव्यकर्म इत्यादि नाना प्रकारके विशेष विशेष अर्थों में भी प्रयुक्त होता है; जसे स्वभाव अर्थ में, जीवधर्म, मनुष्यधर्म, स्त्रीधर्म, पुरुषधर्म, मनोधर्म इत्यादि ; गुण अर्थमें, वायुका धर्म, जलका धर्म इत्यादि प्रत्येक द्रव्यके गुणका नाम धर्म है। इस श्लोकमें यह जो "सर्वधर्म" शब्द है, इसका अर्थ विशेष रूप से समझना होगा। इसके लौकिक अर्थकी आलोचना करके पश्चात् आध्यात्मिक अर्थकी बालोचना की जावेगी। अर्जुन प्रथम अध्यायमें कहे हैं कि “इन आततायियोंकी हत्या करनेसे अस्मदादिका कुलझयकृत तथा मित्रद्रोहजनित पाप होगा, सनातन कुल-धर्म नष्ट होगा, धर्म नष्ट होनेसे अधर्मकी वृद्धि होगी, उससे शाश्वत जाति-धर्म और कुल धर्म उत्सन्न जावेगा।” द्वितीय अध्यायमें कहे हैं कि “मैं धर्मसंमूढ़चेता हुआ हूँ, मैं तुम्हारा शिष्य हूँ, जो श्रेयः हो वही मुझको उपदेश करो" अर्जुन का मनोभाव है कि गुरु-ज्ञाति-मित्रोंको बध करनेसे उन लोगोंका ( पाण्डवोंका ) धर्म अर्थात् पुण्य क्षय होकर पाप होगा और कुल धर्म तथा जाति-धर्म उत्सन्न होनेसे भी पाप उन्हीं लोगोंको असर करेगा। श्रीभगवान शिष्य अर्जुनकी धर्मलोपाशंका तथा पापभय दूर करके उनको परम कल्याण साधनके लिये कहते हैं “सर्वधर्मान् परित्यज्य"-समुदय धर्म अर्थात् पाप-पुण्य सिद्धान्त करने वाले जो सब विधान हैं, कुलरक्षाका जो विधान ( कुलधर्म ) है, और जातिरक्षाका जो विधान ( जातिधर्म) है, और भी जिन सब धर्म-पालनार्थ तुम कातर हुए हो, उन सबके सम्बन्धीय सब धर्म-सब विधान-सब प्रकारका विधि निषेध त्याग करके, 'मामेकं शरणं व्रज'–केवल मात्र हमारी शरण लेलो, अर्थात् मैं तुम्हारा गुरु हूँ, गुरुवाक्य ही धर्म है, उसी मेरा वाक्य अनुसार-मैं

Loading...

Page Navigation
1 ... 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378