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श्रीमद्भगवद्गीता व्याख्या। "धर्म"-संस्कृत भाषामें यह एक बहु विस्तृतार्थसम्पन्न शब्द है। यह क्रम अनुसार विस्तार अर्थ से विशेष-विशेष अर्थ में प्रयुक्त होकर चला आता है। धृ धातुमें मन् प्रत्यय करके धर्म शब्द सिद्ध हुआ है। धातुगत अर्थमें, जिसे धारण करके रहा जाय वही धर्म है, इस प्रकार अर्थ होता है । इस अर्थमें ( १म अर्थ ) स्वयं आदि पुरुष सृष्टिकर्ता विधाता हो धर्म है, कारण उसीको धारण करके यह विश्व स्थित है। सुतरां ( २य अर्थ ) इस विश्वव्यापार परिचालनके लिये वह जो विधान किया है, अर्थात् जिस विधानका आश्रय करके विश्वकी क्रिया चल रही है, वह भी धर्म ( विश्वविधान ) है। उसी प्रकार (३य अर्थ ) वह विधातृपुरुष जीवका (विशेषतः मनुष्योंका) कर्म और कर्मफलके सम्बन्धमें जो विधान किया है, जिससे पाप और पुण्य नाम करके दो प्रकारका कर्मफल विभाग किये हुए हैं, उसको भी धर्म कहते हैं। पुनः ( ४र्थ अर्थ) पुण्यके फलसे जीव क्रम अनुसार निकटवर्ती हो करके स्वयं धर्मका (विश्वविधाताका ) स्वरूप प्राप्त होता है इसलिये पुण्यको भी धर्म कहते हैं, और पापफल करके जीव धर्मसे क्रमशः बहुदूरमें निक्षिप्त होता है इसलिये पापको अधर्म कहते हैं। इसी प्रकारके क्रम अनुसार (५म अर्थ ) धर्मशास्त्रानुयायी
आचार भी धर्म नामसे चला आता है। विधिविहित विधानका नाम धर्म कह करके, उसीके, अनुकरणसे (६ष्ठ अर्थ) सामाजिक व्यवहारिक विधानको भी धर्म कहते हैं; इसलिये स्मृति प्रभृति व्यवहार शास्त्र को धर्मशास्त्र कहा जाता है। (७ म अर्थ ) विशेष विशेष विधानको भी धर्म कहते हैं ; जैसे वीरधर्म, राजधर्म, गार्हस्थ्यधर्म, संन्यासधर्म, पातिव्रत्यधर्म इत्यादि।
* इस अर्थका पोषक स्वरूप एक पौराणिक श्लोक है।"धारणाद्धर्ममित्याहुः धर्मोधारयते प्रजाः । यः स्याद्धारणसंयुक्तः स धर्मो नरपुंगव ।"