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श्रीमद्भगवद्गीता सारध्यमर्जुनस्यादौ कुर्वन् गीतामृतं ददौ । लोकत्रयोपकाराय तस्मै कृष्णात्मने नमः ॥ ६ ॥ संसारसागरं घोरं तत् मिच्छति यो नरः। गीतानावं समासाद्य पारं याति सुखेन सः ॥७॥ गीताज्ञानं श्रुतं नैव सदैवाभ्यासयोगतः। मोक्षमिच्छन्ति मूढ़ात्मा याति बालकहास्यताम् ॥ ८॥ ये शृण्वन्ति पठन्त्येव गीताशास्त्रमहनिशम् । न ते वै मानुषा ज्ञेया देवरूपा न संशयः॥६॥ गीताज्ञानेन संबोधं कृष्णः प्राहा नाय वै। भक्तितत्त्वं परं तत्र सगुणं वाथ निर्गुणम् ॥ १०॥
जिसने अर्जुनका सारथ्य करते-करते लोकत्रयके उपकारके लिये पहले हो गीतामृत दान किया है उस कृष्णात्माको ( परमात्मस्वरूप ) श्रीकृष्णको ) नमस्कार है ॥६॥
जो नर घोर संसारसागरसे तरनेके इच्छा करते हैं वे गीतारूप नौकाका सम्यक आश्रय करके सुखसे पार उतर जाते हैं ॥ ७॥
सर्वदा अभ्यास योगानुष्ठानसे गीताज्ञान श्रवण बिना जो मोक्ष की इच्छा करता है ऐसे मूढ़ात्माको देखकर लड़के लोग भी हंसते हैं ॥८॥ __जो लोग अहर्निश गीताशास्त्र श्रवण और पाठ करते हैं उनको आदमी मत समझो, वे लोग देवस्वरूप हैं। इसमें सन्देह नहीं ॥६॥ .
श्रीकृष्ण गीताज्ञान द्वारा अर्जुनको संबोध (सम्यक्ज्ञानसम्पूर्ण ज्ञान ) कहे थे; उसमें सगुण और निर्गुण परम भक्तितत्व वर्णित है ।। १०॥