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श्रीमद्भगवद्गीता सर्वत्र प्रतिमुक्त्वा च प्रतिगृह्य च सर्वशः। गीतापाठ प्रकुर्वाणो न लिप्येत कदाचन ॥ ३६ ॥ रत्नपूर्णा महीं सर्वा प्रतिगृह्याविधानतः । गीतापाठेन चैकेन शुद्धस्फटिकवत् सदा ॥३७ ।। यस्यान्तःकरणं नित्यं गीतायां रमते सदा। स साग्निकः सदा जापी क्रियावान् स च पण्डितः ॥ ३८ ॥ दर्शनीयः स धनवान् स योगी ज्ञानवानपि । स एव याज्ञिको याजी सर्ववेदार्थदर्शकः ॥३६ ।। गीतायाः पुस्तकं यत्र नित्यपाठश्च वर्तते । तत्र सर्वाणि तीर्थानि प्रयागादीनी भूतले ॥ ४० ॥* निवसन्ति सदा देहे देहशेषेऽपि सर्वदा। सर्वे देवाश्च ऋषयो योगिनो देहरक्षकाः ॥४१॥*
सर्वत्र भोजन करके और सर्व प्रकारसे प्रतिप्रह' करके भी गीतापाठकारी कभी लिप्त नहीं होते ॥ ३६ ॥
रत्नपूर्णा समप्र पृथिवी अविधानतः प्रतिग्रह (अन्याय पूर्वक ग्रहण) करके भी एक मात्र गीता पाठसे ही शुद्ध स्फटिक सदृश निर्मल रहते है॥३७॥
. जिसका अन्तःकरण प्रत्यह सर्वदा गीतामें रत रहता है, वही साग्निक, सदा जापक, क्रियावान् और पण्डित है, वही दर्शनीय और धनवान , योगी और ज्ञानवान् है, वही यानिक, याजक और सर्व बेदार्थदर्शक है ॥ ३८ ॥ ३६॥
जिस स्थानमें गीताकी पुस्तक रहती है और नित्य पाठ होता है, भूतलके उसी स्थानमें ही प्रयागादि समुदय तीर्थ वर्तमान रहते हैं; • गीतायाः पुस्तकं यत्र यत्र पाठः प्रवर्तते ।
तत्र सर्वाणि तीर्थानि प्रयागादीनि तत्र व। सर्वे देवाश्च ऋषयो योगिनः पन्नगाश्च ये ॥ ४ ॥