Book Title: Pranav Gita Part 02
Author(s): Gyanendranath Mukhopadhyaya
Publisher: Ramendranath Mukhopadhyaya

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Page 363
________________ ३५४ श्रीमद्भगवद्गीता यः शृणोति च गीतार्थ कीर्तयत्येव यः परम् । श्रावयेच्च परार्थ वे स प्रयाति परं पदम् ॥ २६ ॥ गीतायाः पुस्तकं शुद्ध योऽपयत्येव सादरात्। विधिना भक्तिभावेन तस्य भार्या प्रिया भवेत् ॥ २७ ॥ यशः सौभाग्यमारोग्यं लभते नात्र संशयः। दयिताना प्रियो भूत्वा परमं सुखमश्नुते ।। २८ ।। भभिचारोद्भवं दुःखं वरशापागतं च यत् । नोपसर्पति तत्रैव यत्र गीताच्चनं गृहे ।। २६ ॥ .. तापत्रयोद्भवा पीड़ा नैव व्याधिर्भवेत् क्वचित । न शापो नैव पापं च दुर्गतिर्नरकं न च ॥ ३० ॥ विस्फोटकादयो देहे न बाधन्ते कदाचन । लभेत् कृष्णपदे दास्यं भक्ति चाव्यभिचारिणीम् ॥ ३१ ॥ जो गीतार्थ श्रवण करते हैं, कीर्तन करते हैं और दूसरेको गीताका परार्थ श्रवण कराते हैं, वह परमपदको प्राप्त होते हैं ॥ २६ ॥ _ विधिपूर्वक, आदरसे और भक्तिभावसे जो गीताकी विशुद्ध पुस्तक दान करते हैं, उनकी भार्या प्रिया होती है, वह यश, सौभाग्य और आरोग्य लाभ करते हैं; एवं दयिताओंके प्रिय होकरके परमसुख भोग करते हैं, इसमें संशय नहीं है ॥ २७ ॥ २८ ॥ जिस गृहमें गीताकी अर्चना होती है, वहां अभिचारसे उत्पन्न दुःख तथा वरशाप जनित दुःख पहुंच ही नहीं सकता ॥ २६ ॥ __ (वहाँ) तापत्रयोद्भवा पीड़ा और व्याधि कभी होती ही नहीं, शाप नहीं लगता, पाप भी नहीं होता है, दुर्गति और नरक भी नहीं होती है; विस्फोटकादि ( फोड़ा ) कभी देहमें बाधा ( यन्त्रणा ) प्रदान नहीं कर सकता; ( वह गृहस्थ ) श्रीकृष्णके चरणमें दास्य और अव्यभिचारिणी भक्ति लाभ करता है ॥ ३० ॥ ३१॥ .

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