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माहात्म्यम्
३५१ सोपानाष्टादशैरेवं भक्तिमुक्तिसमुच्छ्रितः। क्रमशश्चित्तशुद्धिः स्यात् प्रेमभक्त्यादिकर्मसु ॥ ११॥ ..., साधोगीताम्भसि स्नानं संसारमलनाशनम्। श्रद्धाहीनस्य तत्कार्य हस्तिस्नानं वृथैव तत् ॥ १२ ॥ गीतायाश्च न जानाति पठनं नैव पाठनम् । स एव मानुषे लोके मोधकर्मपरो भवेत् ॥ १३ ॥ यस्माद्गीतां न जानाति नाधमस्तत्परो जनः। धिक् तस्य मानुषं देहं विज्ञानं कुळशीलताम् ॥ १४ ॥ गीतार्थं न विजानाति नाधमस्तत्परो जनः। धिक शरीरं शुभं शीलं विभवन्तत गृहाश्रमम् ॥ १५ ॥ प्रेम भक्ति आदि कर्मसमूहके द्वारा इस प्रकार भक्ति मुक्तिके क्रमसे समुन्नत ( १८ श अध्यायरूप ) अठारह सीढ़ी द्वारा क्रमशः चित्तशुद्धि होती है ॥ ११॥
गोतारूप जलमें साधुका स्नान संसारमलका नाशक है, श्रद्धाहीन व्यक्तिका वह कार्य हस्तिस्नानके न्याय वृथा है ॥ १२॥
जो गीता पढ़ना और पढ़ाना नहीं जानता है, मनुष्यलोक में वह मोधकर्म-परायण होता है ॥ १३ ॥
इसलिये जो आदमी गीताको नहीं जानता है उससे बढ़के कोई अधम नहीं है, उसके मनुष्यदेहको धिक् , विज्ञानको धिक् और कुलशीलको भी धिक् है ॥ १४॥ ___ जो आदमी गीताका अर्थ नहीं जानता है उससे बढ़के कोई अधम नहीं है; उसके शरीर, शुभ शीलता, विभव और गृहाश्रमको धिक ॥ १५ ॥