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श्रीमद्भगवद्गीता अध्येष्यते च य इमं धयं संवादमावयोः।
ज्ञानयझेन तेनाहमिष्टः स्यामिति मे मतिः ॥ ७० ॥ अन्वयः। यः च आवयोः (श्रीकृष्णार्जुनयोः ) इमं धम्यं ( धर्मादनपेतं ) संवादं अध्येष्यते ( जपरूपेण पठिष्यति ), तेन (सा) अहं ज्ञानयज्ञ न ( सर्वयज्ञभ्यो श्रेष्ठेन यज्ञन ) इष्टः (पूजितः ) स्याम् ( भवेयम् ) इति मे मतिः (निश्चयः) n७० ॥
अनुवाद। जो पुरुष हम दोनोंके इस धर्मयुक्त संवादका अध्ययन करेंगे, ज्ञानयज्ञ द्वारा उनसे मैं पूजित होऊंगा, इस प्रकार हमारा निश्चय है ॥ ७० ॥
व्याख्या। जो भाग्यवान इस प्रश्नोत्तररूप निजबोध विचार (केशवार्जुनसंवाद ) का अध्ययन (मनन, निदिध्यासन ) करेंगे, ज्ञानाग्निमें उनकी अज्ञानता भस्म हो जावेगी, अर्थात् ज्ञानयज्ञ द्वारा "मैं" पूजित (अचित ) होनेसे चिरकल्याण जो मुक्ति है, वह निश्चय होगी; यही हमारा मति ( हमारे मन की कथा ) है ॥ ७० ॥
श्रद्धावाननसूयश्च __शृणुयादपि यो नरः। सोऽपिमुक्तः शुभांल्लोकान्
प्राप्नुयात् पुण्यकर्मणाम् ॥ ७१ ॥ अन्वयः। यः नरः श्रद्धावान् (श्रद्दधानः ) अनसूयश्च ( असूयावजितः ) सन् इमं ग्रन्थं ) शृणुयात् अपि ( अपि शब्दात् किमुतार्थज्ञानवान् ) सोऽपि (पापात् ) मुक्तः सन् पुण्यकर्मणां शुमान् लोकान् प्राप्नुयात् ॥ १॥
अनुवाद। जो नर श्रद्धायुक्त और असूयावजित होकर इस संवादको श्रवण मी करते हैं, वे भी (पापसे ) मुक्त होकर पुण्यकर्मा लोगोंके शुभलोक समूहको प्राप्त होते हैं। ७१॥
व्याख्या। भगवान ६८वें श्लोकमें भगवद्गतको गीता उपदेश करनेका फल और ७०वें श्लोकमें गीतापाठका फल कह करके इस श्लोक " में गीता श्रवणका फल कहते हैं ।