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अष्टादश अध्याय
३३७ य इदं परमं गुह्य मद्भक्तष्वभिधास्यति । - भक्ति मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः ॥ ६८ ॥
अन्वयः। यः परमं गुह्य इदं ( केशवार्जुनयोः संवादरूपं ग्रन्थं, गीताशास्त्रं ) मद्भक्त षु अंभिधास्यति ( मद्भक्तभ्यो वक्ष्यति ), सः मयि परां भक्तिं कृत्वा असंशयः सन् मा एव एष्यति ॥ ६॥
अनुवाद। जो पुरुष परमगुह्य इस गीता शास्त्रको मेरे भक्तगणोंसे कहेंगे, वे पुरुष हममें पराभक्ति करके संशयशून्य होकर हमको ही प्राप्त होवेंगे n ६८॥ - व्याख्या। जो इस गुप्ततम गुरुशिष्य सम्वाद रूपसे कथित गौताशास्त्रको. “मैं” के भक्तको अर्थात् “मैं” होनेके लिये जो लालायित है, उसको समझाकर उस भक्तका भक्ति "मैं" में दृढ़ करा देगा, वह भी उस अभ्यास और साधनके बलसे शरीरका शेष निःश्वास त्यागके समय “मैं” में पड़कर “मैं” हो जायेगा। इसमें कुछ भी संशय नहीं है ॥ ६८॥
न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः।
भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि ॥ ६६ ॥ अन्वयः। मनुष्येषु ( मध्ये ) तस्मात् ( मद्भक्त भ्यो गीताशास्त्रव्याख्यातुः सकाशात् ) अन्यः कश्चित् मे प्रियकृत्तमः ( अत्यन्तं परितोषकर्ता ) न च (अस्ति), मुवि तस्मात् अन्यः मे प्रियतरः न च भविता ( भविष्यति ) ॥ ६९ ॥
अनुवाद। मनुष्योंके भीतर उससे दूसरा कोई हमारा अधिक प्रिय नहीं है, पृथिवीमें उसको छोड़कर दूसरा कोई प्रियतर होगा भी नहीं ॥ ६९ ॥
व्याख्या। जीव जब मनुष्य शरीर धारण कर साधनबलसे यह "मैं" होता है, तब भूत भविष्यत् वर्तमानमें उससे "मैं" का प्रिय होनेका पिसीका और उपाय नहीं है; क्योंकि, वह आप भी जैसे मायावशी हुआ, दूसरेको भी उसी तरह मायावशी होनेका अधिकार देकर उनका उद्धार किया ॥ ६ ॥