Book Title: Pranav Gita Part 02
Author(s): Gyanendranath Mukhopadhyaya
Publisher: Ramendranath Mukhopadhyaya

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Page 348
________________ अष्टादश अध्याय ३३६ जो लोक श्रवणका अधिकारी हैं, श्रद्धा और विश्वासके साथ संशयशुन्य मनसे यदि यह संवाद श्रवण करें तो, वे भी पापमुक्त होकर पुण्यवान होंगे, और इस ज्ञानकी शक्तिसे मायापाशको काटते हुए शुभलोक (ज्ञानियोंके लोक ) को प्राप्त होवेंगे। "शृणुयादपि” इस “पदके 'अपि' शब्दका भाव यह है कि, श्रद्धायुक्त और द्वषवर्जित हो करके केवल सुननेसे ही पापमुक्त होकर सद्गति लाभ होती है, अर्थको समझ लेनेसे जो फल फलेगा उसकी और कया क्या है ? ॥ १ ॥ कञ्चिदेतच्छ तं पार्थ त्वयैकामेण चेतसा। कञ्चिदज्ञानसंमोहः प्रणष्टस्ते धनन्जय ॥ ७२ ॥ अन्वयः। हे पार्थ ! त्वया एकाग्रेण चेतसा एतत् श्रुतं कच्चित् ? (कच्चिदिति प्रश्नार्थे )। हे धनञ्जय ! ते अज्ञानसंमोहः ( अज्ञाननिमित्तः संमोहः वैचित्त-भावः अविवेकता ) प्रणष्टः कच्चित् ? ॥ ७२ ॥ अनुवाद। हे पार्थ ! तुमने एकाग्रचित्त होकर इसे श्रषण किया तो? हे धनंजय ! क्या तुम्हारा अज्ञानजनित मोह प्रणष्ट हुआ ? ॥७२॥ व्याख्या। अब साधक अापही आप अपनेको प्रश्न करते हैं कि --हे पार्थ! तुमने जो मायाके चक्कर में अपनेको बद्ध कह कर स्वीकार किया था, यह उपदेश विचार एकाग्र-मनसे श्रवण करके क्या तुम्हारा यह माया-पाश कट गया ? जीवका जो ६ धन (जन्म, मृत्यु, सुख, दुःख, क्षुधा, तृष्णा ) हैं, उन्हें क्या तुमने जय किया है ? अज्ञान जनित मोहजाल क्या तुम्हारा नष्ट हो गया है ? ॥ ७२ ॥ अर्जुन उवाच। नष्टोमोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत । स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव ॥ ३ ॥ अन्वयः। हे अच्युत ! मोहः ( अज्ञानज तमः ) नष्टः, मया त्वत्प्रसादात्

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