Book Title: Pranav Gita Part 02
Author(s): Gyanendranath Mukhopadhyaya
Publisher: Ramendranath Mukhopadhyaya

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Page 352
________________ अष्टादश अध्याय ३४३ धनुर्धरः ( गाण्डीवधन्वा ), तत्र ( एव ) श्रीः ( राज्यलक्ष्मीः ), तत्र एव च विजयः, तत्र एव च भूतिः ( उत्तरोत्तराभिवृद्धिः ), नीतिः (न्यायोऽपि ) तत्रैव धुवा (अव्यभिचारिणी ) इति मम मतिः (निश्चयः) ।। ७८ ॥ अनुवाद। जहां योगेश्वर श्रीकृष्ण ( वत्तमान ) और धनुर्धारो पार्थ ( अर्जुन ) हैं, वहां ही राज्यलक्ष्मी, विजय, भूति ( सम्पद् ) और अव्यभिचारिणी नौति वत्तहै, यही हमारी मति ( निश्चय धारणा ) है ॥ ७८ ।। व्याख्या। जहां सर्वयोगका नियन्ता ब्रह्मज्ञान भास्कर स्वरूप मुक्तिदाता कृष्ण मीमांसक है, जहां प्रकृति-जालोत्तीर्ण साधक गाण्डीवधारी अर्जुन ( जिस साधकका मेरुदण्ड = पीठकी रौढ़ कभी ढीली नहीं होती केवल सीधी ही रहती है ) प्रश्नकर्ता है, वहां ही श्री ( सारदा ज्ञप्ति), विजय (सर्वशक्ति दमन अधिकार ), भुति ( ऐश्वर्य्य), नीति (विचारका शेष फल ब्रह्मत्व ) हैं। यही हमारी ध्रुवा सत्यसंकल्पा मति है, यही हमारी मनकी अटूट निश्चय धारणा है। साधक ! तुम योगमार्गमें भक्तिपथके पथिक हुए हो । तुम संजय के इस शेष उक्तिको अपने पथका सम्बल कर लो तो किसीमें भी तुम अवसन्न न होगे। तुम भी धनुधर हो जाओ और कृष्णको सारथि बना लो; वह योगका ईश्वर है, तुमको ठीक रास्ते पर चलाके युक्त कर लेगा। गुरूपदिष्ट अभ्यास-अनुष्ठानसे लब्ध ज्ञानके अनुसार मेरुदण्डको संयत रखना ही धनुर्धर होना है। कृष्णको सारथि बनाना क्या है ? कृष्ण सत्त्वगुणकी मूत्ति वा मूर्तिमान सत्त्वगुण है। तुम इस सत्त्वगुणको अपना परिचालक कर लो, अपना आहार-व्यवहार, चाल-चलन, याग-यज्ञ, क्रिया-कलाप सब सात्त्विक भावका करलो, सत्त्वगुणको सखा करलो, मन-प्राणको सत्त्वमय कर लो। ऐसा होने से ही तुम्हारे कृष्ण सारथि होवेंगे। यह सत्त्व ही योगेश्वर है, इन्हें छोड़कर सिद्धिलाभका दूसरा उपाय नहीं है, यहो “भास्वता ज्ञान

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