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श्रीमद्भगवद्गीता 'तं,' जिसे ईश्वर कहा हूँ-जिससे भूतगणोंकी प्रवृत्ति,-जिससे यह समस्त व्याप्त, वही 'त' ही यह 'म'; वही मैं-'सोऽहं" हूँ।” यह 'सोऽहं' ज्ञान सर्वगुह्यतम है। किसीसे भी यह ज्ञान समझाया नहीं जा सकता। उस अवस्थाको प्राप्त न होनेसे इसको समझा नहीं जाता; यह निजबोधरूप है। निजबोध ज्ञान ही गुह्य है, क्योंकि भाषामें व्यक्त होनेका विषय नहीं है। निजबोधरूप ज्ञान जितने हैं उनके भीतर पुनः यह सबसे गुह्यतम है, क्योंकि यही है चरम सबसे ऊपर; इसके बाद ही अहं मिट जाता है, फिर बोध्य बोधन नहीं रहता।
बातही बातमें 'सोऽहं' ज्ञान उपदेश करके सर्वगीतार्थ सारभूत उसी ज्ञानप्राप्तिसाधनका सारसंग्रह करके इस श्लोकमें प्रकाश कर दिये हैं। दिखाते हैं कि इस साधनके पर-पर चार क्रम हैं। प्रथम, "मन्मना भव"-'मैं' में अर्थात् कूटस्थ चैतन्यमें मनः संयोग करो। द्वितीय, "मद्भक्तः भव”—मेरे भक्त हो जाओ, एकमात्र 'मैं' में अनुरक्त हो जाओ, अर्थात् “मैं” में मन संयोग करनेके बाद "मनः यतः यतः निश्चरति ततस्ततः नियम्यैतत् आत्मनि एव” वश करलो, मनके अनुराग आसक्तिको एकमात्र कूटस्थमें फेंको, दूसरे किसीमें मन न देना। तृतीय, "मद्याजी भव"-मन्त्र सहयोगसे मेरी पूजा करो, अर्थात मेरा जो मन्त्र प्रणव है, वही प्रणव उच्चारण करो, उसके साथ ही साथ आत्मा-मन-प्राणको “मैं” में आहूति दे दो। तत्पश्चात् चतुर्थ "मां नमस्कुरु”—“मैं” को नमस्कार करो, कर शिरः संयोग पूर्वक "मैं" के सम्मुख में नत हो जाओ अर्थात् पूर्वोक्त तीन क्रमके बाद "मैं” के समीपस्थ तथा समपदस्थ हो करके "मैं' में स्थिर नेत्रसे ताकते रहके क्रियाशक्ति और ज्ञानशक्तिको युक्त करो-निश्चेष्ट करो; इस क्रियामें दोनों शक्ति जबही युक्त होवेंगी तबही साम्यभाव आवेगा, केवलेन्द्रिय भी निष्क्रिय होगा, दृश्य न रहेगा, अदर्शन