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अष्टादश अध्याय
३३१ आवेगा; अभ्यास पक्का न होने पर्यन्त यह दर्शन अदर्शन बार-बार आवागमन करेगा; यही नमस्कार है, इसीको किया करो। तत्पश्चात् पञ्चम वा शेष फल, "भाम एव एष्यसि” ... "मैं” को ही प्राप्त होओगे, “मैं” में आपड़के मिल करके "मैं” हो जाओगे-"सोऽह" अवस्था पाओगे। यह एकबारगी ध्र व सत्य कथा है, इसके इधर-उधर और नहीं है। प्रिय होनेसे यह होवेगाही। ___ इस श्लोकका सरल भावार्थ यह है। --मनका काज संकल्पः ( पकड़ना ) और विकल्प ( छोड़ना है। मनको विषयसे छुड़ाकर "मैं' में लगा दो। भक्त अर्थात् उपासक जैसे उपास्य देवतामें मनप्राणको फेंक करके मिलकर तदाकारत्व लेते हैं, तुम भी उसी प्रकार "मैं" में मन-प्राणको मिला कर (क्रिया गुरूपदेशगम्य ) "मैं' हो जाओ। “मैं” को पूजामें मतवाले हो जाओ अर्थात् "मैं" मय हो जाओ। “मैं” को ही नमस्कार करो ( समान समानमें बराबरमें नमस्कार होता है ) अर्थात् आत्मामें आत्माका मिलन कर दो। मैं सत्य प्रतिज्ञा करके कहता हूँ कि, हे “मैं” के प्रिय ! तुम “मैं” हो जाओगे, तुम्हारी मुक्ति अवश्यम्भावी है ।। ६५ ॥
सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।। अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥ ६६ ॥
अन्वयः। सर्वधर्मान् ( मद्भक्त्येव सर्व भविष्यतीति दृढ़ विश्वासेन विधिकैङ्कयं ) परित्यज्य (त्यक्त्वा ) मामेकं शरणं व्रज ( मदेकशरणो भव ); अहं त्वां सर्वपापेभ्यः मोक्षयिष्यामि; मा शुचः ( एवं वर्तमानः कर्मत्यागनिमित्त पापं स्यादिति शोक मा कार्षीः ) ।। ६६ ।।
• अनुवाद। सर्व धर्म परित्याग करके एक मेरी शरण लो, मैं तुमको सर्व पापसे मुक्त करूंगा; शोक न करना ।। ६६ ।।