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२८८ ___श्रीमद्भगवद्गीता हुआ है। स्वभाव-प्रभव गुण द्वारा विभागका शब्दार्थ जरा अच्छी तरह समझना होगा। स्वभाव-ईश्वरकी प्रकृति वा त्रिगुणात्मिका माया है। यह प्रकृति तीन प्रकारको क्रिया-शक्तिको प्रकाश करती है, एकका नाम सत्त्व, दूसरेका नाम रजः और तीसरेका नाम तमः है। इन तीनोंको गुण कहते हैं। सुतरां स्वभावप्रभव गुणका अर्थ सत्व, रज और तम यह तीन गुण हैं। जगत्की जो क्रियाएं हैं वे सब इन तीन गुणोंसे ही सम्पन्न होती हैं। इन तीनोंमेंसे कोई परस्पर पृथक् हो करके क्रिया नहीं कर सकता, क्रिया क्या करेगा, पृथक् तो हो ही नहीं सकता। इन तीनोंके परस्पर मिलन तथा मिश्रणके विविध विन्याससे ही विभिन्न प्रकारकी क्रिया उत्पन्न होती है। उस मिलन तथा मिश्रणमें अगर तीन गुण समानांश हों तो साम्यावस्था होनेके कारण कोई क्रिया ही नहीं होती; उन सबके विषम अंशके मिलनमिश्रणसे ही जागतिक जो कुछ क्रिया होती है। सृष्टिके प्रारम्भसे ही गुणत्रयके विविध मिश्रणसे चार प्रकारके वर्ण वा श्रेणी सृष्टि हुई हैं। प्रथम श्रेणीमें सत्त्वप्रधान, अपर दो गुण सत्त्वके अधीनमें अभिभूत हैं। द्वितीय श्रेणीमें सत्त्वमिश्रित रजः प्रधान, तमः अभिभूत है। तृतीय श्रेणीमें तमः मिश्रित रजः प्रधान सत्त्व अभिभूत है। और चतुर्थ श्रेणीमें रजः मिश्रित तमः प्रधान, तथा सत्त्व अभिभूत है। जीव प्रवाह इन चार श्रेणियोंमें विभक्त हैं। प्रथम श्रेणीका जीव ब्राह्मण, द्वितीय श्रेणीका जीव क्षत्रिय, तृतीय श्रेणीका जीव वैश्य और चतुर्थ श्रेणीका जीव शुद्र है। तीनों गुणोंकी ही स्व स्व पृथक् क्रियाशक्ति है; परन्तु वह मिश्र अवस्थामें मिश्रण-क्रियाके तारतम्यानुसार उन चारों श्रेणियोंमें चार प्रकारसे परिणत होती है । सुतरां ब्राह्मण श्रेणी का कर्म एक प्रकार, क्षत्रिय श्रेणोका कर्म एक प्रकार, वैश्य श्रेणीका कर्म एक प्रकार, और शद्र श्रेणीको कर्म एक प्रकारका है। इसलिये कहा हुआ है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र गणोंका सकल कर्म स्वभाव-प्रभव गुणसे प्रविभक्त हैं।