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अष्टादश अध्याय
३२७ जीव प्रकृतिपरतन्त्र, स्वभावपरतन्त्र और ईश्वरपरतन्त्र होनेसे भी इच्छा विषयमें उसको स्वातन्त्र्य है। इसलिये अजुनको "तमेव" पद द्वारा "मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते," "मामेकं शरणं ब्रज' इत्यादि वचनोंके "मां" को लक्ष्य कराते हुए, “गच्छ” "कुरु” प्रभृति सामर्थ्यसूचक क्रिया द्वारा पुरुषकार अवलम्बन करनेका उपदेश दे दिये हैं ॥ ६२॥
इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद् गुह्यतरं मया ।
विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु ॥ ६३ ।। अन्वयः। इति ( अनेन प्रकारेण ) ते ( तुभ्यं ) मया (सर्वज्ञ नेश्वरेण ) गुह्यात् (गोप्यात् ) गुह्यतरं ( अतिशयेन गुह्य रहस्यनित्यर्थः) ज्ञानं प्रख्यातं ( उपदिष्ट ), एतत् ( मयोपदिष्ट गीताशास्त्रं ) अशेषेण विमृश्य ( पर्यालोच्य ) यथा इच्छसि तथा कुरु। ( एतस्मिन् पर्यालोचिते सति तष मोह निवत्तिष्यत इति भावः ) ॥ ६३ ॥ ___ अनुवाद। तुमको मैंने यह गुद्यसे भी अतिशय गुह्य ज्ञानका उपदेश किया; इसकी अशेष रूपसे पर्यालोचना करके जिस प्रकार इच्छा हो उसी प्रकार करो ॥ ६३॥
· व्याख्या। जीव की प्रकृतिपारतन्त्र्य, स्वभावपारतन्त्र्य, ईश्वरपारतन्त्र्य और स्वातन्त्र्य सम्बन्धमें जो कहा गया, वह अति गोपनीय ज्ञान है, कारण यह है कि कार्य करके तदवस्था प्राप्त न होनेसे इसका स्वरूप उपलब्धि नहीं होता; मुखको वाणीसे समझना ( समझ लिया है ऐसा समझना) कल्पनामें ही रह जाता है, उससे काम नहीं चलता। इसलिये भगवान कहते हैं-"यह जो गोपनीयसे अतिशय गोपनीय ज्ञान (चित्तक्षेत्रसे भी ऊपरकी कथा ) मैं तुमको कह चुका, बार-बार इसको आलोचना करके सिद्धान्तमें उपनीत होने से तुम्हारी जिस इच्छाका उदय होगा (इच्छाका नदय होगा ही नहीं ), तुम वही करो।” अर्थात् आज्ञाके ऊपर उठ करके यह जीव, ईश्वर और माया विषयक ज्ञानको पालोचना करके चरम सीमामें