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अष्टादश अध्याय
.. ३२० अवस्था है। इसलिये भगवान परश्लोकमें अर्जुनको कहते हैं "तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत" । * ॥ ६१॥
* बहुतेरे लोग कहते हैं कि "ईश्वर जो कराते हैं वही मैं करता हूँ, फिर पाप पुण्य क्या? मैं कुछ भी नहों, ईश्वर ही सब है"। एक पक्षसे यह बात अच्छी है, भक्तिके लक्षण प्रकाश करता है, परन्तु पक्षान्तर में अज्ञानताका परिचय देता है। सृष्टि क्यों हुई, ईश्वरका सृष्टि करने का उद्देश्य क्या है, पाप पुण्य कर्म-विभाग क्यों हुआ ?. इत्यादि प्रकारके "क्या" और "क्यों" लेकर अब तर्क उठानेका प्रयोजन नहीं है। ईश्वर जो कराते हैं मैं वही सब करता हूं, ऐसा कि वह अस्मदादिके चिन्तास्रोत पर्यत चलाते हैं, यह कथा सम्पूर्ण ठीक नहीं है। कारण जीव तो स्वयम्भू नहीं है कि ऐश्वरिक भाव वा गुण उसमें कुछ न रहेगा; जीवकी सत्ता ईश्वरसे पृथक नहीं है; वेदान्त कहते हैं "जीवः ब्रह्मव केवलं"; कारणसे कार्य रूपमें हो जोवकी सृष्टि होती है। जगत् में देखा जाता है कि एक जातीय बीजसे भिन्नजातीय बीज उत्पन्न नहीं होता; धान्यसे धान्य, यवसे यव, उसी तरह पशु बीजसे पशु, मनुष्य बीजसे मनुष्य, इस प्रकार होता ही चला आया है। कारणके साथ कार्यका सादृश्य , सर्वदा हो रहता है। सर्व जीवमें ही देखा जाता है कि, प्रत्येक जीव ही जैसे स्वाधीन भावमें रहनेको और स्वाधीन भावमें कार्य करनेको इच्छुक है। यह स्वाधीन होनेकी इच्छा कहांसे आई ? यहां ही कार्यके साथ कारणका सादृश समझना होगा। कारण है सृष्टिकर्ता ईश्वर, वह प्रकृतिवशी, स्वाधीन है, उसकी वह स्वाधीन वृत्ति हा कार्यरूपसे विस्तार होते होते प्रकृतिगर्भके जीवमें संजात हुई है। प्रकृतिगभं है कर्मराज्य। इस कमराज्यमें जीव क्लेश-कर्म-विपाक-आशयसे आवृत रहनेसे कर्म .. किये विना रह नहीं सकता, उस स्वाधीन इच्छावृत्तिके परिचालनसे ही कर्म करता है, ईश्वर उसी कर्मफलमें उसको आबद्ध करके फलभोग करवाते हैं। इस स्वाधीन वृत्तिके रहनेसे हो भगवान अर्जुनको उपदेश करते हैं कि "स्वकर्मणा तमभ्यच्य सिद्धि विन्दति मानवः” अर्थात् ईश्वरकी विधानमतामें स्वकर्म ( कृतकर्म फलको ) भोग करते करते स्वाधीन इच्छा परिचालनसे विचारबुद्धिका अवलम्बनसे "उसकी" अर्चना करनी होती है, इस प्रकार करनेसे ही सिद्धिलाभ होगा अर्थात् पतञ्जलि उक्त क्लेश, कर्म, विपाक और आशयरूप आवरण भेदसे स्वाधीन अवस्था-मुक्त अवस्थाको प्राप्ति होगी। यदि ऐसा होता कि, जीवकी स्वाधीन इच्छावृत्ति नहीं है, वह (जीव)