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श्रीमद्भगवद्गीता तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत ।
तत्प्रसादात्परा शान्ति स्थान प्राप्स्यसि शाश्वतम् ॥६२ ।। अन्वयः। हे भारत ! सर्वभावेन ( सर्वात्मना ) तं ( ईश्वरं ) एव शरणं ( आश्रयं ) गच्छ ( आश्रय ), तत्प्रसादात् ( ईश्वरानुग्रहात् ) परां शान्ति ( उत्तमामुपरति) शाश्वतं ( नित्यं ) स्थानं च ( परमेश्वरं मम विष्णोः परमं पदं ) प्राप्स्यसि ।। ६२ ।।
अनुवाद। हे भारत ! सर्वतोभावसे उनका ही आश्रय ग्रहण करो उनके अनुग्रहसे पराशान्ति और नित्य स्थानको प्राप्त होगे ॥ ६२ ॥
व्याख्या। हे भारत ! ( भा= दीप्ति, रत ) हे चक्षुष्मान् ! तुम उन सर्वो के साथ जब जिस अवस्थामें जितना व्यवहार करोगे उन समस्तको ही समुणा ऐसीशक्ति प्रकृति, प्रकृति-विकृति, और विकार का कार्य यह निश्चय करके उन सबके साथ न मिल करके अनुलोभसे हृदयस्थ ब्रह्ममार्गको आश्रय कर आज्ञामें कूटस्थ चैतन्य ईश्वर में मिलने के लिये अग्रसर हो जाओ। जब तुम्हारा यह अभ्यास घन से धनतम हो जावेगा, तब शाश्वत (अव्यय ) पदमें जो पराशान्ति "ब्राह्मी.. स्थिति" है, उसे तुम पाओगे।
इस श्लोकके इस “शरणं गच्छ” और ६३ श्लोकके "यथेच्छसि तथा कुरु” इस वाक्यद्वयसे भगवान् अच्छी तरह समझा देते हैं कि, सर्वतोभावमें पुतलियों सदृश ईश्वरके हाथका खिलौना है, तो भगवान वह उपदेश न देते। वह आपही करवा लेते । ऐसा नहीं है और ईश्वर तो निर्विकार है उसका अपना, पराया, भला, बुरा बोध तो है नहीं, वह सगुण अवस्थामें कर्मरूपो और कर्मफलविधाता है, उसी फलविधाता रूपसे ही वह कर्मफल भोग कराके ही जीवको नचाता है। अज्ञजीव जितने दिन इस नाचनेको नहीं समझ सकते उतने दिन तक नाचते रहते हैं, तत्पश्चात् ज्ञान होनेके बाद समझ लेनेसे ही उसको पकड़ लेते हैं। उसको पकड़नेका फल करके उस नाचनेसे-भवघोरमें चक्कर खानेसे निष्कृति पाते हैं, शान्ति लाभ करते हैं। ६१ ॥