Book Title: Pranav Gita Part 02
Author(s): Gyanendranath Mukhopadhyaya
Publisher: Ramendranath Mukhopadhyaya

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Page 332
________________ अष्टादश अध्याय ३२३ विराम वा अपलाप हो प्रलय, ग्रास वा शून्य (०) है। प्रसव अर्थात सृष्टि व्यक्त है और प्रास अर्थात् प्रलय अव्यक्त है। इन दोनोंका नाम जन्म और मृत्यु है। जिन्होंने जन्म लिये वे ही सब सर्व (जो है ) हुए; और जो सब मर गये वे सब भूत (जो गये हैं ) हुए। ( सवौं की अव्यक्त अवस्था ही भूत, और भूतोंकी ब्यक्त अवस्था ही सर्व है)। अज्ञानीकी दृष्टि में यह परिवर्तन दृश्य होनेसे भी ज्ञानीके चक्षुमें मूलतः एक ब्रह्म ही ब्रह्म भासमान विस्तारता है। वह निर्लिप्त ईश्वर गुणमयी मायाके ( मिथ्याके ) साथ मिल करके ( सगुण ब्रह्म बन करके ) मायाके द्वारा उस सर्व-भूतोंके हृदयमें (ठीक बोचमें ) रहकर, उन सबको जन्म-मृत्युरूप कालचक्रके अधीन बनाकर भ्रमण करवाते हैं। वह इच्छामय ईश्वरने इच्छा प्रभावसे विश्व ब्रह्माण्डको सृजन किया है अर्थात् वह स्वयं इस विश्वाकारको धारण किया है। जैसे एकमात्र बीजसे एक वृक्ष उत्पन्न होता है और फिर उसी वृक्षसे हजारों बीज उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार एक ईश्वरसे उत्पन्न इस विश्ववृक्षसे असंख्य जीव उत्पन्न हुए हैं। विश्वबीज ईश्वर है, विश्व माया-विकार है, और विश्वजात बीज जीव है। एकमात्र इच्छा-बीजसे ही हजारों इच्छाबीज उत्पन्न होते हैं, सुतरां ईश्वर जैसे इच्छामय है, जीव भी उसी तरह इच्छामय है। प्रभेद यह है कि ईश्वर उस इच्छाशक्तिके आश्रय और जीव उस इच्छाशक्तिका आश्रित है-मायागर्भसे आवृत है। माया लालसा-स्वरूपिणी, कर्म-स्वरूपिणी तथा ज्ञान-स्वरूपिणी है; संक्षेपमें कहा जाता है कि माया लालसा-कर्मज्ञानमयी है। माया विकृत होकर चौबीस तत्वामिका प्रकृति रूप धरके विश्वसाजमें सजने से इस लालसा-कर्म-ज्ञानका प्रवाह चलता रहता है। उस लालसासे कर्म, कर्मफल और कर्मसंस्कार तथा प्राकृतिक विकृत ज्ञान वा पञ्चक्लेश उत्पन्त होते हैं, अर्थात् पतञ्जलिका क्लेश, कर्म, विपाक और

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