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अष्टादश अध्याय (३) राग। कभी किसी स्थानमें मैंने मिठाई खा कर सुख पाया है, पुनः उसी मिठाई खानेकी तृप्तिको पानेके लिये जो कामना है, वही राग है, अर्थात् विषयभोगके प्रति अनुराग वा आकांक्षा ।
(४) द्वष।-एक बार एक कष्ट भोगनेके बाद जबही वह कष्ट मनमें उदय होगा तत्क्षणात उसपर जो विरक्ति भाव आता है, अर्थात् फिर कभी उसे भोगनेमें न आवे, ऐसी जो वृत्तिका उदय होता है, उसीका नाम द्वष है।
(५) अभिनिवेश। पूर्व जन्ममें मैं मर चुका था, उस समय मरणका महाकष्ट भोग किया था, वही संस्कार चित्तमें छा रहा है इस कारण अगर कोई मुझे मरने कहे तो उस पूर्व कष्ट भोगकी जो अस्फुट स्मृति मनमें भयका सञ्चार कराती है, उसीको अभिनिवेश कहते हैं। यह पाँच क्लेश हैं। ___ धर्म और अधर्म नामक क्रियाको कर्म कहते हैं । (८म अध्यायमें कर्मकी व्याख्या देखो)। कर्मफलका नाम विपाक है। चित्तमें जो कर्मजात फल अंकित रहता है, उसीको आशय वा संस्कार कहते हैं।
यह सब जिनको स्पर्श नहीं कर सकते ऐसे निलिप्त जो है उसी पुरुष विशेषको ईश्वर कहते हैं। वह सगुण है, परन्तु गुणक्रियाके साथ लिप्त नहीं है, उसमें यही विशेषता है । वह सच्चिदानन्द स्वरूप है । ___ माया क्या है, यही समझानेकी चेष्टा अब की जाती है। -ईश्वर इच्छामय है, उसकी इच्छाशक्तिका नाम माया है। इसलिये माया भी इच्छामयी है । यह इच्छाशक्ति वा माया अव्यक्त है। इसका स्वरूप कह करके प्रकाश किया नहीं जा सकता; कारण कि जो कुछ कहा जावेगा वही नास्ति हो जावेगा, कुछ भी समझा नहीं जावेगा। "मा”-नास्ति वाचक शब्द है, "या"-अस्ति वाचक शब्द; इन दोनों अर्थके मिलनसे जो होता है, वही माया है, अर्थात् निर्णयके अतीत पदार्थ।
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