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श्रीमद्भगवद्गीता कहनेसे आज्ञाचक्रके केन्द्रस्थलको हो समझाता है। उस आज्ञास्थित कूटस्थको लक्ष्य करके सर्वभूतोंके हृद्देशसे अर्थात् ब्रह्मनाड़ीके भीतरसे मनका आवागमन विधान मतमें क्रिया कर सकनेसे ही "सर्वभावसे उसकी शरण लेना" होता है।
“ईश्वर माया द्वारा घुमाते हैं", यह जो कहा हुआ है, यह ईश्वर कौन है ? और माया भी कौन है ? महर्षि पतञ्जलि कहते हैं-"क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेषः ईश्वरः” अर्थात् अविद्यादि पन्चक्लेश, धर्माधर्म रूप कर्म, कर्म-फलरूप विपाक, और चित्तस्थित फलानुकूल संस्कार ( आशय ) जिसको स्पर्श नहीं कर सकते, वही विशेष पुरुष ही ईश्वर है । साधक ! यह अविद्यादि पञ्चक्लेश प्रभृति कैसी है उसे समझ लो ।
(१) अविद्या ।-जो जैसा नहीं है, उसको वैसा समझाकर जो स्थिर विश्वास करा देती है, वह अविद्या है; जैसे यह जगत् अनित्य है। जो जाता है, जिसमें परिवर्तन होता है, वही अनित्य है। तुम्हारा यह शरीर उस शैशव अवस्थासे बदलते बदलते बुढ़ापेमें आ चुका यही परिणाम है। और तुम्हारा वह शिशु, बाल, पौगण्ड, किशोर, यौवन, प्रौढ़ अवस्था समूह जो भर गये ( और वे फिर न आवेंगे), तथापि तुम सोचते हो 'मैं बड़ा होता हूँ, मैं जैसे अमर हूँ। इस भ्रान्ति ज्ञान वा मिथ्या ज्ञानको अविद्या कहते हैं ।
(२) अस्मिता।-दो अत्यन्त भिन्न द्रव्यको जिस अज्ञानतासे एक अभिन्न करके समझा देती है. उसीको अस्मिता कहते हैं। जैसे पुरुषचेतन्य, भोक्ता है, और बुद्धिसत्त्व-जड़, भोग्य हैं; ये दोनों अत्यन्त भिन्न पदार्थ हैं तथापि इन दोनोंका अभिन्न एक ज्ञान जो करा देती है, वही अस्मिता है। यह अस्मिता हो हृदयप्रन्थि है; जिससे "मैं"
और "मेरे" इन दोनों अत्यन्त भिन्न पदार्थों को मोहवशसे अभिन्न एक समझाकर रखती है।