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अष्टादश अध्याय
३१६ कर्मफलविधाता ईश्वर--वही इच्छामय–जिसकी इच्छाशक्ति वा मायासे ही इस जगत्की सब कुछ क्रिया चल रही है जिससे ही भूतगणोंकी प्रवृत्ति और जिसके द्वारा यह समुदय व्याप्त है वह-वही सर्वान्तर्यामी सर्वव्यापी पुरुष सर्व हृदयमें -ब्रह्मादि स्थावरान्त पर्यन्त समुदय माथि कोंमें कार्यप्रवृत्तिरूपसे अवस्थित रह करके स्थावर जंगम समुदायको स्व स्व कर्ममें नियुक्त करता है। यह कार्यप्रवृत्ति ही माया है। उसकी मायाके हाथसे परित्राण किसका है ? वह माया दुरत्यया है उसके वशमें कार्य करना ही पड़ेगा। अतएव तुम्हारा और किसी तरहसे भी निस्तार नहीं है, इस प्राकृतिक स्वभावज कर्म को बिना किये रह नहीं सकते। अतएव ( परश्लोकमें कहते हैं ) तुम "तमेव शरणं गच्छ” उसका आश्रय करो, एकमात्र उसीके प्रसादसे तुम पराशान्ति पाओगे। अपनी इच्छासे "श्रेयो भोक्तु भैक्ष्यमपीह लोके” यह कह कर कर्मान्तरमें जानेसे शान्ति नहीं पाओगे। .
साधक ! अव एकबार निज साधनके प्रति लक्ष्य करो। तुम्हारे साधन मार्गमें मूलाधारादि पाँच चक्रमें क्षिति, अप, तेज, मरुत्, व्योम इन पाँच भूतोंमें ही तुम विचरण करते हो। यही सब सर्वभूत हैं । ईश्वर परमात्मा वा परमेश्वर इन सर्वभूतोंके हृदेशमें अर्थात सब चक्रों के ठीक केन्द्रस्थलमें अवस्थित है। मूलाधारादि चक्रपञ्चकके भीतर, सुषुम्ना-वज्रा-चित्राके भीतर जो ब्रह्माकाश है, जिसको ब्रह्मनाड़ी कहा जाता है, वही सर्वभूतोंके भीतर ब्रह्मका स्वरूप विकाश है, वही ईश्वर है, उसीकी ईशनशीलतासे वा शासनसे, उसीके आश्रयसे वा उसके अस्तित्व हेतु पञ्चतत्त्व स्व स्व धर्म अनुसार कर्म करते हैं। सुतरां क्षिति, अप प्रभृति पाँच स्थानके चक्रका ही केन्द्रस्थल कूटस्थ है; किन्तु सब कूटस्थ ही समसूत्र हो करके, आज्ञा चक्रके केन्द्रके साथ युक्त रहने के कारण तथा आज्ञाके नीचे मोहिनी प्रकृतिका आकर्षण अधिक होने से उस आज्ञाचक्रमें ही लक्ष्य स्थिर करनेकी आज्ञा है, इसलिये कूटस्थ