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श्रीमद्भगवद्गीता ईश्वरः सर्वभूतानां हृदेशेऽर्जुन तिष्ठति ।
भ्रामयन् सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया ॥ ६१ ॥ अन्वयः। हे अर्जुन ! ईश्वरः ( अन्तर्यामी नारायणः ) मायया ( निजशक्त्या) सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि इव ( इव शब्दोऽत्र द्रष्टव्यः यथा दारुयन्त्रमारूढानि कृत्रिमाणि भूतानि सूत्रधारो लोके भ्रामयति तद्धत् ) भ्रामयन् ( तत्तत्कर्मसु प्रवत्त यन् ) सर्वभूतानां हृद्देशे ( हृदयमध्ये ) तिष्ठति, यद्वा यन्त्रारूढानि ( यन्त्राणि शरीराणि आरूढानि अधिष्ठितानि ) सर्वभूतानि ( देहाभिमानिनो जीवान् ) भ्रामयन् सर्वभूतानां हृह शे तिष्ठतीत्यर्थः ॥ ६१ ॥
अनुवाद । हे अर्जुन | ईश्वर माया द्वारा सर्वभूतको यन्त्रारूढ़वत् भ्रमण कराकर सर्वभूतोंके हृद्देशमें अवस्थान कर रहे हैं। ( अथवा, ईश्वर शरीररूप यन्त्रा"धिष्ठति भूत समुदायको अर्थात् देहाभिमानी जीव समूहको माया द्वारा भ्रमण कराकर सर्वभूतोंके हृदय मध्यमें अवस्थान करते हैं ) ॥ ६१ ॥
व्याख्या। भगवान पूर्व दो श्लोकमें सांख्यादि मत अनुसार "जीवकी प्रकृतिपरतन्त्रता तथा स्वभावपरतन्त्रताकी कथा कह चुके हैं। अब इस श्लोकमें स्वमत प्रकाश करते। कहते हैं कि, सर्वभूत ही ईश्वर परतन्त्र है; ईश्वर सर्वभूतोंके हृदय में अवस्थान करके माया द्वारा सर्वभूतोंको घुमाते हैं । ५६, ६०, ६१ श्लोकमें भगवानके वचनका भावार्थ प्रकार है। - "हे अर्जुन ! तुम तो पहिले प्रकृति के वशीभूत हो अर्थात् पूर्वकृत कर्मफलसे जिस प्रकार धातुसे तथा जिस प्रकार सांचेमें तुम्हारा देह, मन गढ़ा हुआ है, कार्यकालमें उसी प्रकार भावकी क्रिया करनेके लिये तो तुम बाध्य हो; परन्तु उसे छोड़ कर दूसरे आजन्म अभ्यासके द्वारा शरीर-मनको जिस प्रकार कर्ममें अभ्यस्त किये हो, उस अभ्यस्त म्वभावज कर्मको छोड़कर दूसरा कर्म करना अब तुम्हें असम्भव है, क्योंकि तुम उसीमें निबद्ध हो, इच्छा न करनेसे भी अवश हो करके उसे तुमको करना ही पड़ेगा। इस प्रकृति तथा स्वभावज कर्म द्वारा जीव तो निबद्ध ही है, परन्तु उसे छोड़ कर वही