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श्रीमद्भगवद्गीता 'अधिक होता है कि घन घन दीर्घ निःश्वासरूप धारण करके बाहर
आने चाहता है, चिल्लाय करके रोनेकी प्रवृत्ति उत्पन्न करता है; भयके आवेगसे अन्तरमें प्राण संकुचित होकर हृदयको कम्पायमान कर देता है, छाती धड़कती रहती है; आनन्दके आवेगसे अनन्तरमें प्राण स्फीत होकर खूब हंसी ला देता है; यह सबही प्राणके स्वभावविहित कर्म हैं। इन सब कर्मो को त्याग ( दमन ) करनेसे शरीरमें व्याधि उत्पन्न होगी। उसी तरह प्रगाढ़ चिन्ताके समय प्राणक्रिया स्थिर हो जाती है; अनेक क्षण बैठ करके क्रिया करनेसे प्राणप्रवाह संयत हो जाता है, शरीरको भी संयत करता है। इस समय यदि किसी आवेगसे चन्चल हो करके कोई काज करने जाओ और प्राणवाहको सरल होनेका साक्काश न दो तो तत्क्षणात मस्तकमें चक्कर आकर तुम्हें गिरा देगा। इस प्रकार सामान्यसे सामान्य उदाहरणसे समझा जाता है कि, स्वभावकी क्रिया प्राणकी क्रिया जिस प्रकार प्रारम्भ होती है उसे दोषमुक्त समझनेसे भी त्याग करना न चाहिये, प्राणकी तात्कालिक क्रियाका अनुवर्तन करते हुए उसी क्रियाको बदल कर उसे त्याग करना ही युक्तियुक्त है। अब देखना चाहिये कि साधकको साधन-जीवनमें उनके स्वभावानुयायी सहज कर्मका किस किस प्रकारके भावसे परिवर्तन होता है।
"जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात् द्विज उच्यते"-इस वचनसे जाना जाता है कि, जबतक संस्कार अर्थात् उपनयन न हो तबतक शूद्र अवस्था रहती है। उपनयनको अन्तर्ड ष्टि भी कहा जा सकता है। अस्मदादिका इन दोनों चक्षुओंसे अन्तविषय लक्ष्य नहीं होता. इसलिये श्रीगुरुदेव दीक्षाकालमें अस्मदादिके भ्रमध्यमें एक दिव्यचक्षु खोल देते हैं। उसे ही उपनयन कहते हैं । उस चक्षुसे बाहरकी ओर देखा नहीं जाता, भीतर ही भीतर ताकनेसे उसमें अनेक विषय दिखाई पड़ते हैं। उस चक्षुकी हकशक्ति साधारणतः आवरणसे ढकी