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श्रीमद्भगवद्गीता अनुवाद । विशुद्ध ( सात्त्विक ) बुद्धि युक्त हो करके, धृति द्वारा ( उसी ) बुद्धि को निश्चल करके, शब्दादि विषय समूहको त्याग करके ( तद्विषयक ) राग द्वेष परित्याग करके, विविक्तसेवी, मितभोजी, संयतवाग्देहचित्त और नित्य ध्यानयोगमें तत्पर होके वैराग्यका सम्यक् प्रकारसे आश्रय करके अहंकार, बल, दर्प, काम, क्रोध
और परिग्रहको विशेष रूपसे त्याग करके, निर्मम हो करके परमो पशान्ति प्राप्त साधक ब्रह्म होनेके ( मैं ब्रह्म हूं इस ज्ञानमें निश्चल रूपसे अवस्थान करनेका ) योग्य होते हैं ।। ५३ ॥ ५२ ।। ५३॥ _व्याख्या। जिसकी बुद्धि विशुद्ध अर्थात् अात्मस्वरूप बिना और सब किसीको उपेक्षा करती है, ग्रहण नहीं करती; जिसकी धृति स्व स्वरूप बिना और किसीमें नहीं रहती; जिसका देहाभिमान संयत (आयत्ताधीन ) हो चुका अर्थात् कभी भी देह "मैं" हूं कह करके स्मृति नहीं उठती; शब्दादि विषय समूह शरीर धारणोपयोगी क्रियामात्र करता है, तदतिरिक्त और कुछ भी नहीं करता। राग-प्रीति, द्वष-अप्रीति, यह दोनों ही जिसके अन्तःकरणसे परित्याग हो चुके, जो पुरुष केवल मात्र शून्यागार, नदीतीर, पर्वत, श्मशानकी निर्जनता सर्वदा अन्तःकरणमें भोग करता है अर्थात् मूलाधारसे आज्ञाचक्रको भेद करके केवल ब्रह्मनाड़ीका मध्य स्थान देकर आवागमन करता है, चित्रा, वना, वा सुषुम्नामें से किसीके स्पर्शमें लिप्त नहीं होता (विविक्तसेवी ); जो लघु आहार करता है वा जिसकी आशा (प्राप्तीच्छा ) लघु है अर्थात् एकमात्र ब्रह्म बिना और किसीको नहीं चाहता; जिसका वाक्य, शरीर, मनोवृत्ति “यत" हैं अर्थात स्व स्व क्रिया त्याग कर चुके; चिन्ता मात्रके विलयसे जो निष्कामता-स्थिति होती है अर्थात् मिलनेकी वस्तु ब्रह्ममें मिल करके तदाकारत्व लेनेसे जो निरन्तर अवस्थान होता है, सर्वदा उसीमें जो तत्पर ( रत ) है; इहकाल परकालमें भोगमात्रके ऊपर जिसकी उपेक्षा (विराग) है;
और जिसका अहंकार =में कर के अभिमान, बल = जिस किसी प्राकृतिक पदार्थकी (अवस्तुकी ) ग्रहण-शक्ति, दर्प = कूदके बड़ा होनेका