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श्रीमद्भगवद्गीता उदय हो नहीं सकता, सुतरां सर्वभूतका अस्तित्व है कि नहीं इसका बोध न रहनेसे समही सम भासमान रहता है इस कारणसे गुरुवाक्य में अटल विश्वाससे लब्ध फल जो "मैं ब्रह्म हूँ" ज्ञान, उसे ही पाता है। (६ अः ३२ श्लोक, ७ अः १६ श्लोक ) ॥५४॥
भत्त्या मामभिजानाति यावान्
यश्चास्मि तत्वतः। ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा
विशते तदनन्तरम् ॥ ५५ ।। । अन्वयः। भक्त्या ( तथा च परया भक्त्या) यावान् ( सर्वव्यापी) यश्चास्मि ( सच्चिदानन्दघनः) तथाभूतं मां तत्त्वतः अभिजानाति; ततः मां ( एवं ) तत्त्वतः ज्ञात्वा तदनन्तरं ( तस्य ज्ञानस्योपरभे सति ) मां विशते ( परमानन्दरूपो भवतीत्यर्थः) ॥५५॥
अनुवाद। ( उस परा ) भक्ति द्वारा मैं जिस प्रकार ( सर्वव्यापी ) तथा जिस प्रकार ( सच्चिदानन्दधन ) हूं उस प्रकारसे मुझको तत्त्वत: अवगत होते हैं, तत्पश्चात् मुझको उस प्रकारसे तत्त्वत: जान कर उस ज्ञानके उपरम होनेके बाद हममें प्रवेश करते हैं ।। ५५॥
व्याख्या। यह जो "मैं" अहं-उपाधिके द्वारा पृथक् पृथक् अनेक “मैं” की सृष्टि किया हूं देखते हो, गुरुवाक्यके ऊपर अटल विश्वाससे क्रिया करते हुए चित्तरूप आकाशको धोते धोते जब वह समस्त पृथक् "मैं" मिट जा करके सर्वोपाधि वजित द्वतात शून्य एकरस चैतन्यधन अजर, अमर, अनन्त, जान कर इस "मैं" के बिना और दूसरे "मैं" का स्थान नहीं है यह समझ करके संशय रहित होंगे, तबही ''मामभिजानाति" अर्थात् क्षेत्रज्ञ रूपसे आपही अपनेको देख लेंगे, अन्तःकरणमें विरुद्धवादका स्थान फिर न होगा। जहां जितना जल है उन समस्तको ही समुद्रका जल समझ करके, पृथक् पृथक श्रात्माका