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अष्टादश अध्याय .
३११ संस्कार, काम= विषयाकारा वृत्ति, क्रोध= कामना प्रतिहत होनेसे जिस वृत्तिका उदय होता है, परिग्रह = जितनेसे चलता है उतनेसे अधिकका ग्रहण-यह सब एक दम त्याग हो चुके; ऐसे निर्मम ( अर्थात् हमारे कहनेका कुछ भी जो पुरुष अन्तःकरणमें ग्रहण नहीं करता, वहो) स्थिर धीर साधक ब्रह्मत्व लाभ के योग्य होता है ॥५१॥ ५२ ॥ ५३॥
ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न कक्षति ।
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम् ॥ ५४।। अन्वयः। [ब्रह्माहमिति नैंश्चल्येनावस्थानस्य फलमाह ब्रह्मति ] ब्रह्मभूतः ( ब्रह्मण्यवस्थितः ) प्रसन्नात्मा (प्रसन्नचित्तः ) न ( नष्ट ) शोचति न च (अप्राप्तं ) कांक्षति, सर्वेषु भूतेषु समः सन् परां ( उत्तमा ज्ञानलक्षणां चतुर्थी ) भद्भक्तिं ( मयि परमेश्वरे भक्ति भजनं ) लभते। [आतादीनां भक्तानां मध्ये ज्ञानिनः भक्तिरेव परा] ॥ ५४॥
अनुवाद । ब्रह्ममें अवस्थित प्रसन्नचित्त मनुष्य ( नष्ट द्रव्योंके लिये ) शोक नहीं करता, ( अप्राप्त वस्तुओंके लिये ) आकांक्षा भी नहीं करता, सर्वभूतमें सम होकरके मद्विषयिणी पराभक्ति लाभ करता है ॥ ५४॥
व्याख्या। पूर्व पूर्वोक्त प्रकारसे समाधि-साम्य साधनमें जो साधक ब्रह्मसंस्पर्श सुखका अनुभव कर चुका उसे ब्रह्मविद् वा ब्रह्मभूत कहते हैं। 'प्रसन्नात्मा'-प्र=सर्वतोभावसे, सन्न =गमन; जो सर्वतोभावसे आत्मामें गमन कर चुका, अर्थात् आत्मामें अवस्थान कालमें जिसमें किसी प्रकार मायिक संस्कारका स्फुरण नहीं होता, उसे ही "प्रसन्नात्मा" कहते हैं। इस प्रकार अवस्थापन्न साधकोंका अन्तःकरणमें शोचना अर्थात् चित्तकी क्रियाशक्ति प्रकाश पाता ही नहीं, तथा आकांक्षा अर्थात् ब्रह्म बिना अन्य कोई मायिक द्रव्यकी प्राप्ति लालसा भी नहीं रहती। निस्तरंग स्थितिके लिये विषमताका