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अष्टादश अध्याय
३१५से पार हो जाओगे, अर्थात् अनिर्मल सृष्टिमुखी चित्तमें जिस चिच्छायाको धर रखा था, चित्तकी निर्मलता हेतु वह छाया-धरने-- बाला घेरा कट जावेगा। सुतरां संसार बीजका स्पर्शदोष मिट जावेगा, तुम भी मुक्त हो जाओगे, मायासे तर जाओगे। और यदि तुम अहंकारका आश्रय करके यह उपदेश न सुनोगे, ग्रहण न करोगे. तो मरोगे अर्थात् जन्म-मृत्यु भोग करते रहोगे ॥५८ ॥
यदहंकारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे ।
मिथ्यैव व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति ॥ ५६ ॥ अन्वयः। अहंकारं आश्रित्य ( मदुक्तं अनाहत्य केवलमहंकारमवलम्व्य ) न योत्स्ये ( युद्ध न करिष्यामि ) इति यत् मन्यसे ( चिन्तयसि निश्चयं करोषि ) ते व्यवसायः (निश्चयः ) मिथ्या एव, ( यस्मात् ) प्रकृतिः (क्षत्रस्वभावः ) त्वां नियोक्ष्यति ( युद्ध प्रपतयिष्यत्येव ) ॥ ५९॥ ___ अनुवाद । अहंकारका आश्रय करके "युद्ध न करूंगा" यह जो मनमें धारणा करते हो, तुम्हारा यह व्यवसाय ( चेष्ठा ) निश्चयही मिथ्या ( वृथा ) है, क्योंकि, प्रकृति तुमको ( युद्ध में ) अवश्य नियुक्त करेगी ॥ ५९॥
व्याख्या। यदि तुम अहंकारका आश्रय करके 'युद्ध (क्रिया ) न करूगा' मनमें यह निश्चय करके बैठ रहो तो, यह तुम्हारा क्रिया न होगा। तुम क्षत्रिय हो, तुम्हारी प्रकृति तुमसे युद्ध ( क्रिया) कराये बिना नहीं छोड़ेगी, तुम भी बिना किये रह नहीं सकोगे ॥ ५६ ॥
स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा ।
कत्तु नेच्छसि यन्मोहात् करिष्यस्यवशोऽपि तत् ॥६० ॥ ... अन्वयः । हे कौन्तेय । स्वभावजेन ( स्वभावः पूर्व कर्मसंकारस्तस्जातेन ) स्वेन (स्वीयेन ) कर्मणा ( शौर्यादिना ) निबद्धः ( यन्त्रितः त्वं ) मोहात् यत् ( कर्म ) कत्त न इच्छसि तत् ( कर्म ) अवशोऽपि ( परवश एव ) करिष्यसि ॥ ६ ॥