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अष्टादश अध्याय खड़ी हुई है बिना भोगके उसका क्ष्य नहीं होगा। इच्छा द्वारा त्याग करनेसे कर्म त्याग नहीं होता। प्राकृतिके वशसे अवश होकरके स्वभावज कर्म में और भी निबद्ध होना होता है; अनासक्त क्रियाके फलसे कम आपही आप त्याग होता है। इच्छाका प्रयोगसे बन्धन ही होता है, मुक्ति नहीं होती। इसलिये श्रीभगवान पश्वात् कहे हैं कि “कत्त नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोऽपि तत्”। इसी कारण अब उपदेश करते हैं कि "असक्तबुद्धिः सर्वत्र" हो करके और "स्वकर्मनिरतः” हो करके ईश्वरकी अर्चना करते चलो, ऐसा होनेसे ही सिद्धिलाभ होगी। सहज कर्म सदोष होनेसे भी उसको त्याग करना न चाहिये, क्योंकि, वही उन्नतिका एक मात्र पन्थ है। जैसे आवश्यकीय अन्नादि प्रस्तुत करनेका एक मात्र उपाय अग्नि है; परन्तु अग्नि प्रज्वालन करना हो तो स्वभावसिद्ध धूम होना अनिवार्य है इस कारण जैसे अग्नि त्याज्य नहीं है, बसे सर्व कर्म ही प्रारम्भ कालमें दोषाच्छन्न रहते हैं, इसलिये सहज कर्म सदोष होनेसे भी त्याज्य नहीं है।
प्राणचालन जीवका सहजात कर्म है। विषयके साथ मिल कर के ही दोष युक्त हुआ है इसलिये यह कर्म परित्याग करनेका नहीं है । जैसे धूआँ अग्निको ढांक रखता है, वैसे सर्वो का. प्रारम्भ ( स्पर्श ) दोषके द्वारा इस कर्म के ब्रह्ममार्गमें विचरण-द्वार ढका हुआ है। अग्नि थोड़ा बलवान होनेसे ही जसे धूएको निकाल कर निजस्वरूप प्रकाश 'करती है, सहजात कर्म भी तसे गुरुप्रदर्शित मार्गमें विचरण करके प्राकृतिक मायाजालको निकालकर स्व स्वरूप में स्थापन करता है ॥४८॥
असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः। .
नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां संन्यासेनाधिगच्छति ॥ ४६॥ अन्वयः । सर्वत्र असक्तबुद्धिः ( असक्ता संगरहिता बुद्धिरन्तःकरणं यस्य सः) जितात्मा (निरहंकारः) विगतस्पृहः (निराकांक्षः ) संन्यासेन (कर्मासक्ति