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श्रीमद्भगवद्गीता क्रियामें प्रवृत्त है। उसने इस घोर कम अवस्थाकी कठोरता देख करके निश्चय कर लिया कि, क्रियाका शेष अवस्थाका शम दमादि कर्म ही उत्तम है; वह अच्छी शान्तिमय अवस्था है (अर्थात् सहस्रार क्रिया, गुरुमुखगम्य ), उस अवस्था में पञ्चतत्त्वोंके साथ कोई भी सम्बन्ध नहीं रहता, अथच दर्शन, श्रवण, मनन आदि द्वारा विश्वज्ञान (विज्ञान ) जाना जाता है; षट्चक्रमें कोई चेष्टाही नहीं रहती, कोई
आधिपत्यभी नहीं रहता। मन यहच्छालाभसन्तुष्ट होता है। इस यहच्छालाभसन्तुष्ट अवस्थाको लक्ष्य करके ही अर्जुन ने कहा कि "श्रेयो भोक्तुं भक्ष्यमपोह लोके"। अर्जुन जो घोर कर्मावस्थाको परित्याग करके ज्ञानावस्थामें जाना चाहते हैं, उनकी वह इच्छा वृथा है; क्योंकि, घोर कर्मके अनुष्ठान बिना उस ज्ञानावस्थामें रहा नहीं जाता, प्रकृतिके वशसे उतरकर उनको कर्म में नियुक्त होना ही पड़ेगा। यही समझानेके लिये यह गीता है ।
श्रीभगवान कहते हैं “सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्' साधनकी इस मध्यम अवस्थामें साधक कूटस्थ चैतन्यको लक्ष्य करके उभय वृत्तियों के बीचमें खड़े हुए हैं, उनका रास्ता सब परिस्कार है, गाण्डीवमें छिला ( गुण ) चढ़ाया हुआ है, अर्थात् मेरुदण्ड जितनी दूर संयत और संकुचित होना चाहिये सो हुआ है, उसमें अति तीक्ष्ण शर भी योजित हुआ है, अर्थात् मेरुमध्यगत श्वास अति सूक्ष्म और तीव्र हुआ है, अब जहां इच्छा अबाधतः निक्षेप किया जा सकता है
और जिसको इच्छा भेद भी किया जा सकता है। इस अवस्थामें शौर्य्य तेजादि बिना दूसरी और कोई क्रिया नहीं है। वही इस समय का सहज कर्म है। अब यदि साधक शौर्य तेजादिके द्वारा उस तीव्र सूक्ष्म श्वासका यथोपयुक्त व्यवहार न करके उसको त्यागपूर्वक सहस्रार में ब्रह्मःमके अनुष्ठानमें प्रवृत्त होने जायेंगे तो, वह हो नहीं सकता। क्योंकि वह तीव्र सूक्ष्म श्वासकी क्रिया जो अब प्रारब्धरूपसे