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अष्टादश अध्याय
____३०५ दीर्घ करते हैं, रुद्ध करते हैं, अर्थात् क्रियाकी मध्यम अवस्थाका कर्म करने लगते हैं, अन्तमें विपरीत फल पाते हैं, शिर:-पीड़ादि व्याधिग्रस्त होते हैं। इसलिये गुरूपदेश "सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्” इत्यादि है। . जब क्रियाकी इस प्रथम अवस्थाका कर्म आयत्त हो पाता है तथा श्वास क्रम अनुसार आपही आप सूक्ष्म, दार्थ और वेगशाली होता है, तब शिक्षार्थी साधक गुरुके पास द्वितीय क्रियाको प्राप्त होते हैं
और शिक्षित साधक क्रियाको मध्यम अवस्थाका काम करनेमें प्रवृत्त होते हैं। मध्यम अवस्थाही साधकका क्षत्रियभाव हैं। इस अवस्थाका स्वभावज कर्म शौर्या, तेज, धृति, दाक्ष्य, युद्ध में अपलायन, दान और ईश्वरभाव है। यही अवस्था साधक जीवनमें कठोर-अवस्था है। प्रथम अवस्थाके कर्ममें नाड़ीपथ समूह परिस्कार होनेसे इस अवस्था में साधकको गुरूपदेश अनुसार श्वासके ऊपर वेग प्रयोग करना पड़ता है, वायुको विभिन्न नाडीपथमें चलाना पड़ता है, तेज सहकारसे साधन-क्लेश सहना होता है, कृतित्व और दक्षता प्रकाश करके विवेक वैराग्यादि के सहारेसे विषय-वासनानुकूल काम, क्रोध और लोभादि वृत्तिकै प्रबल आक्रमणको अटकाना पड़ता है, किसी प्रकारसे भी पीछे पाँव हटाना न चाहिये । इस प्रकारसे क्रिया करनेसे काम क्रोधादिको जय किया जाता है और क्रम कसे शरीर-राज्यके अनेक स्थान भायत्तमें आते हैं, नाना प्रकारकी विभूति लाभ होती हैं। विभूति लाभ होनेसे आसक्त होकरके उस विभूतिको भोग करना न चाहिये। भोगसे बन्धन होता है, उन्नति नहीं होती, सर्वत्र अनासक्त रह करके समस्त भगवानको समर्पण करते हुए चले जाना पड़ता है; यही दान है। यह जो भोग-बन्धनमें न पा करके अनासक्त भावमें रहना है, इससे प्राकृतिक शक्तिके ऊपर सर्वत्र आत्मप्रभाव विस्तार हो जाता है; यही ईश्वरभाव है। गीतोक्त साधक अर्जुन इस मध्यम अवस्थाकी
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