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श्रीमद्भगवद्गीता ( बन्धी ) पाते रहनेसे सुप्रसन्न होते हैं। प्राणके बदले में वे (देव) लोग ज्ञान देते हैं. अालोक देते हैं, रास्ता दिखा देते हैं और सहायक होते हैं। इस प्रकारसे परस्परकी भावना द्वारा परम श्रेय लाभ होता है। यही वाणिज्य है। क्रियाको प्रथम अवस्थामें इन तीनों कर्मों को करना पड़ता है। श्वास आप ही आप स्वभावतः जैसे बहता है उसी के वशमें रह करके कौशल द्वारा उसमें आत्ममन्त्रका संयोग करके वाणिज्य करना होता है, अर्थात् आत्ममन्त्र और हंसको परस्पर समन्वित करके छों चक्रमें यथा नियमसे प्राणक्रिया (प्राणायाम ) करना होता है, श्वासके ऊपर किसी प्रकारका वेगका प्रयोग करना न चाहिये। शिक्षार्थी साधक जितने दिन इन तीनों कर्मों में न अभ्यस्त होंगे, जितने दिन आसन स्थिर और सुखकर न होगा और रसना उलट कर गलगह्वरके भीतर तालु कुहरमें न जावेगी, उतने दिन इस क्रियाको करेंगे। और शिक्षित साधक क्रियामै बैठके जबतक भीतर एक स्वच्छन्द भावको नहीं पायेंगे और श्वास सरल, सूक्ष्म और सबल न होगा, तथा कूटस्थमें लक्ष्य स्थिर न होगा तबतक इस क्रियाको करेंगे। स्वभावके वशमें रह करके श्वासके ऊपर किसी प्रकार वेगका प्रयोग न करके यह जो तीनों कर्म हैं, इस प्रकार कर्म न करनेसे उन्नति होती ही नहीं; पुनः इस प्रकार कर्मका त्याग करके पहिलेही श्वासके ऊपर वेग प्रयोग करके तेज प्रकाश करनेकी चेष्टा करनेसे, नाड़ीपथ समूह सरल न होनेसे वायुका वेग वहां पहुंचकर बाधा पाकर उन सबको विकृत करके शरीरको व्याधिग्रस्त करेगा। क्रियाकी प्रथम अवस्था ही मृदु भावकी साधन है; इस साधनसे शक्ति सञ्चय होने के बाद तब तीव्र भावकी साधन करना होता है। बहुतेरे लोग क्रिया की इस प्रथम अवस्थाका मृदुभावका साधनको दोष मानते हुए उसमें अभ्यस्त न होकरके भी अपनी बुद्धिसे तीव्रभावकी साधन करने लग जाते हैं, श्वासके ऊपर वेग प्रयोग करते हैं, श्वासको संयत करते हैं,