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३०२ . श्रीमद्भगवद्गीता सब कर्मों को त्याग करना न चाहिये; त्याग करनेसे उन्नत अवस्था लाभ नहीं होती। · उन सब कर्मों को पर पर अनुष्ठान कर जानेसे ही उन्नत अवस्थामें उठा जाता है और अनुष्ठानके फलसे वे सब कर्म क्रम अनुसार श्राप ही आप त्याग भी होते रहते हैं। नहीं तो स्वेच्छासे उनका त्याग करनेसे पतन होता है । __ साधकको क्रिया-वर्जित-अवस्था ही शूद्रावस्था है। इस अवस्थाका सहज वा स्वभावज कर्म परिचर्यात्मक है। इस अवस्थाके परिचा वा सेवा द्वारा अपर तीन अवस्थाओंका पोषण होता है। परिचर्या है शरीरको शौचाचारमें रखना, उपयुक्त परिमाण अंग चालना करना, शरीरको परिमित सात्त्विक आहार देना, शरीरको वातातापसे रक्षा करना, उपयुक्त आश्रय बनाना इत्यादि, अर्थात् ६ अः १७ श्लोक अनुसार युक्तभावमें शारीरिक क्रिया सम्पन्न करना। यह सबही तदर्थीय कर्म होनेके कारण इसमें बाधकता नहीं आती। इस परिचार्यात्मक कर्म द्वारा शरीरको साधनानुकूल करना होता है। __क्रियाकाल ही साधककी द्विज अवस्था है। क्रियाको प्रथम अवस्था ही उनका वैश्य भाव है, द्वितीय वा मध्यम अवस्था क्षत्रिय भाव है
और शेष अवस्था ब्राह्मण भाव है। साधनकी यह तीन अवस्था है। “प्रथम अवस्थाका स्वभावज कर्म कृषि, गोरक्ष्य तथा वाणिज्य है। यह तीनों कर्म क्रियाके प्रथमसे ही साथ ही साथ चलते रहते हैं। समझने में सुभीतेके लिये इन तीनों कर्मों को पृथक पृथक् रूपसे वर्णन किया जाता है।
आसनमें "सम कायशिरोप्रीवं” हो करके बैठकर श्वासकी क्रिया के साथ शरीरका अधोगामी वेगको ऊर्ध्वमें आकर्षण करके तथा मेरुदण्ड और सर्व शरीरको दृढ़ और संयत करके हृदयमें अनाहत चक्रके ऊपर निर्भर करना होता है। यह आसन सुचारुरूपसे आवद्ध न होने "पर्यन्त वायुके सहयोगसे शरीरको रीतिमत कर्षण करके (कस लेके)