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श्रीमद्भगवद्गीता विहितं इत्यर्थः ) कर्म न त्यजेत् , हि ( यस्मात् ) धमेन अग्निः इव सबारम्भा दोषण आवृताः॥४८॥
___ अनुवाद । हे कौन्तेय ! सदोष होनेसे भी सहज कर्म त्याग करना न चाहिये, क्योंकि धमद्वारा ( आवृत) अग्निवत् सर्वकर्म ही प्रारम्भमें दोषोंसे आवृत रहते हैं ।। ४८ ॥ __ व्याख्या। सहज-जन्मके साथ जात इस अर्थमें सहज । जन्म कौन कर्म उत्पन्न होता है ? प्राणक्रिया हो जन्मके साथ जन्मती है। इसलिये प्राणक्रियाको सहज कम कहते हैं। जीव जबतक मातृग में रहता है, तबतक उसके निश्वास प्रश्वासकी स्वतंत्र क्रिया नहीं रहती, मातृशरीरकी क्रियासे ही नाड़ी सहयोगसे उसके शरीरमें प्राणक्रिया सम्पन्न होती रहती है। उस समय उसके शरीरमें प्राणप्रवाह अति सूक्ष्माकारसे उसकी ब्रह्मनाड़ीमें बहता रहता है। उसीसे सप्तधातुका पुष्टि साधन होता है । भूमिष्ठ होते मात्र ज्योंही नासारन्ध्रमें निश्वास प्रश्वासकी क्रिया प्रारम्भ होती है, त्योंही अन्तरका प्राणप्रवाह उस नासारन्ध्रके प्रवाह के साथ मिल करके क्रम अनुसार बहिर्मुख होता है। इसके साथ ही साथ स्वप्नवत पूर्व स्मृति विलुप्त होती है, वाह्य विषयोंके संयोगमें आकर मोहित हो जाता है। इसलिये योगसाधन का उद्देश्य ही है उस प्राणप्रवाहको पुनः अन्तर्मुख कर देना; क्योंकि प्राण अन्तर्मुख होनेसे हो मोहका विनाश होता है, स्मृति जागरुक होती है, और आत्मज्ञानोदयसे जगत् आनन्दमय होता है। प्राणका वह अन्तमुख प्रवाह ही सहज कर्म है। वह अन्तर्मुख प्राणप्रवाह विषयसंस्पर्शमें आकर क्रमानुसार बहिर्मुख हो गया है। श्रीगुरुदेव योगदीक्षा संस्कार के समय उस प्रवाहको अन्तर्मुख कराकर अखण्ड मण्डलाकार तत्पदका दर्शन करा देते हैं। परन्तु उस प्रवाहका यह परिवर्तन अधिक क्षण स्थायी नहीं होता, विक्रम-ताड़नसे शीघ्र ही पुनः घुम जाता है । सुतरां उसके लिये आप स्वयं साधन करना पड़ता