________________
अष्टादश अध्याय
२९७ करनेसे पापस्पर्श नहीं होता, क्योंकि स्वभावज कर्म जैसा ही हो वह तो अपने ही कृतकर्मका फल है और अब प्रारब्धरूप घरके खड़ा हुआ है; अतएव अनासक्त भोग बिना उसका क्षय होना ही नहीं है। इसलिये परधर्मसे स्वधर्म श्रेयस्कर है।
इस अध्यायमें श्रीभगवान साधक अर्जुनको साधनके चार वर्णकी अवस्था लक्ष्य कराकर वर्णधर्म अनुसार उनको स्वधर्म में प्रवृत्त करते हैं। साधनके उसी वर्णधर्म अनुसार ही यह व्याख्या की गई है। ( पर श्लोककी व्याख्या देखो)। तृतीय अध्यायमें स्वधर्म और परधर्मकी जिस प्रकार व्याख्याकी हुई है उसके प्रति भी साधकको लक्ष्य रखना चाहिये। क्योंकि फलमें दोनों ही एक है। इसलिये वह व्याख्या भी यहाँ दी गई है।
विगुणः विगत गुणः, निस्त्रगुण्य ( २य अ ४५ श्लोक ), अर्थात् गुणत्रयके लयके पश्चात् जो ब्राह्मी स्थिति है वही स्वधर्म है, उसमें सम्पूर्ण अटक रहने में असमर्थ होकर समाधि भंगके बाद उतर कर पुनः परिश्रम करके समाधि लेनेकी आवागमन क्रिया भी श्रेयः है, परन्तु परधर्म अर्थात् प्राकृतिक धर्म सुन्दर रूपसे अनुष्ठान करना, अर्थात् केवल विषयाकारा वृत्ति लेकरके निरन्तर रहना श्रेयः नहीं है।
और वह ब्राह्मीस्थिति प्राप्त होने के लिये जो क्रिया कर रहा हूँ (उस समय ब्रह्ममें लक्ष्य रहनेके कारण ) उसको स्वभावनियत कर्म कहते हैं। इस अवस्थामें गुणत्रयका संस्रव रहनेसे भी प्रकृतिके वशमें नहीं जाना होता; प्रकृतिके वशमें जाना ही पाप है। (३य अः ३५ श्लोक; ५म अः १० श्लोक देखो ) ॥४७॥
सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत् ।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः॥ ४८ ॥ अन्वयः। हे कौन्तेय ! सदोषं अपि सहजं ( जन्मना सह एव उत्पन्नं, स्वभाव