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अष्टादश अध्याय
२८६ स्वभाव-प्रभव शब्दका और भी विशेष अर्थ है। जीव स्व स्व कर्मफलसे भला बुरा जन्म लेता है। जीव जब एक देह छोड़ करके देहान्तर ग्रहण करता है तब पूर्ववाला मनःषष्ठ इन्द्रियोंको लेकरके जाता है, अतएव उसके पूर्वजन्मवाला संस्कार उसमें रह जाता है। उसी संस्कार वशसे परजन्ममें उसमें उस गुण-क्रियाका संक्रम होता है, अर्थात् चार श्रेणियोंमेंसे किसी एक श्रेणीका गुण पाता है। उस पूर्वसंस्कारको ही स्वभाव कहते हैं; उस स्वभावके वशसे जिस श्रेणीका गुण लाम करता है वही स्वभाव-प्रभाव गुण है। इसलिये कहा जाता है कि, जीव, ब्राह्मणादि जो कोई श्रेणी भुक्त हो, उसका कर्म पूर्व जन्मके संस्कारसे उत्पन्न गुण द्वारा विभक्त है।
मूल श्लोकमें ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य एक समासबद्ध हैं और शूद्र पृथक् है। इससे ब्राह्मणादि वर्गत्रय जो द्विज तथा वेदाधिकार-सम्पन्न हैं वही सूचित हुआ है, और शूद्र वेदाधिकार वर्जित होनेके कारण समासमुक्त नहीं हुआ ॥४१॥
शमोदमस्तपः शौचं क्षान्तिराजवमेव च ।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ॥ ४२ ॥ अन्वयः। शमः (चित्तोपरमः ) दमः (बाह्य न्द्रियोपरमः ) तपः ( पूर्वोक्त शारोरादि ) शौचं ( वाह्याभ्यन्तरं ) क्षान्तिः (क्षमा ) आजवं ( अवक्रता ) ज्ञानं (शास्त्रीयं ) विज्ञानं ( अनुभवः ) आस्तिक्य ( अस्ति परलोक इति निश्चयः ) एव च स्वभावजं ब्रह्मकर्म (ब्राह्मणस्य स्वभावात् जातं कर्म ) ॥ ४२ ॥ ___ अनुवाद। शम, दम, तपः, शौच, क्षमा, आर्जव, ज्ञान, विज्ञान तथा आस्तिकता हो ( वेद और ईश्वर में विश्वास ) ब्राह्मणका स्वाभावज कर्म है ॥ ४२ ॥
व्याख्या। पूर्व पूर्व जन्मोंके कर्म-संस्कारकी निर्मलतासे स्वाभावतः शम, दम, तप, शौच, शान्ति, आर्जव ज्ञान, विज्ञान आदि (पहले जो व्याख्या कर चुके) और वेद तथा ईश्वरका अस्तित्व
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