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श्रीमद्भगवद्गीता तो समझना होगा कि यह हमारे ही कृतकर्मका फल तथा ईश्वरका विधान है। यह मनमें निश्चय करके शूद्रके कर्म वा प्रवृत्तिके ऊपर घृणा न करके वा अनुरक्त न हो करके मुझको अम्लानमुखसे उसी कर्मका अनुसरण करना होगा। वह शूद्र कर्मही तब (उस समय ) हमारा स्वकर्म है। जिस वर्णमें जन्म लेऊंगा उसी वर्णका कर्म ही मेरा स्वकर्म होगा। अनासक्त भावसे स्वकर्ममें निरत रह करके पुरुषकारका अवलम्बन करके उसी सर्वान्तर्यामी सर्वव्यापीकी अर्चना करनी हंगी, मन-प्राणको गुरूपदिष्ट नियमसे उन्हींमें फेंकना होगा; ऐसा होनेसे ही मैं क्रमोन्नति लाभ करके शुद्धचित्त होकर सिद्धिलाभ करूंगा। मानवके सिद्धिलाभका यही एक उपाय है, अर्थात् स्वकर्ममें रहकर ईश्वराराधन करना। सकल वर्णका यही एक नियम है। परन्तु मैं जिस किसी वर्णमें जन्म क्यों न लू, यदि उस वर्णके कर्मों को घृणा करते हुए त्याग करके दूसरे वर्णके कर्म करू, अहंकारके वशसे "मैं भी तो मनुष्य हूँ" यह विचार करके ऊंचे वर्णके समान होने जाऊं, तो ईश्वराराधना ही करूं, और योगयाग जो कुछ करू', मेरा कमबन्धन छिन्न होना तो दूर रहा कर्मबन्धन अधिक से अधिक बढ़ता ही रहेगा। क्योंकि, बाहर लोगों के पास मैं खूब बहादुरी लेनेसे भी मेरा मन मुझको छोड़ेगा नहीं; कालान्तर में वह हमारे चित्तमें हमारी वह घृणा और अहंकारका संस्कार उठाकर संशय तथा शोचनाका उद्रेक करावेगाही, और मृत्युकालमें भी मुझको उस संस्कारके आकर्षणमें फेंकेगा। सुतरां तब मुझको कदर्थ बन्धनकी फांसमें बंधा रहना होगा
और १६ अः १६ श्लोक अनुसार संसारकी आसुरी योनिमें निक्षिप्त होना होगा।
भगवान एक मात्र भक्तिके वश हैं। भक्तिमार्गमें अधिकारी भेद नहीं है। क्योंकि इसमें किसी विशेष क्रियाका अनुष्ठान नहीं है जिसमें विशेष प्रकारकी शक्ति तथा सामर्थ्यका प्रयोजन होगा। इसमें