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श्रीमद्भगवद्गीता स्वे स्खे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः।
स्वकर्मनिरतः सिद्धि यथा विन्दति तच्छृणु ॥ ४५ ।। अन्वयः। स्वे स्वे कर्मणि ( स्वस्वाधिकारविहिते कर्मणि ) अभिरतः ( परिनिष्ठितः तत्परः ) नरः संसिद्धिं ( ज्ञानयोग्यता ) लभते। स्वकर्मनिरतः (स्वकर्मपरिनिष्टितः ) यथा (येन प्रकारेण ) सिद्धि विन्दति ( तत्त्वज्ञानं लभते ) तत् ( तत्प्रकारं ) शृणु ॥ ४५॥
अनुवाद । स्व स्व ( अधिकार विहित ) कर्ममें रत मनुष्य गण सिद्धिलाम करते हैं। स्वकर्ममें निरत मनुष्य जिस प्रकारसे सिद्धिलाभ करते हैं उसे श्रवण करो॥४५॥
व्याख्या। साधक पहिले ही अपनेको परीक्षा कर देखेंगे कि वे आप कौन है ? साधकका मन अपनेको जो वर्ण कह कर स्वीकार करेगा, साधक उसी अनुसार कर्म कार्यका अनुष्ठान करेंगे। सर्व वर्ण से ब्राह्मण बड़ा है इस कारण अपर तीन वर्णको ब्राह्मणोचित कर्मों का अनुष्ठान करना उचित नहीं। अपने अपने वर्ण अनुसार कर्ममें प्रवृत्त हो करके ठीक अपने ऊपर वाले वर्णके आचरणसे अपनेको उन्नत करने के लिये चेष्टा करेंगे। एकको उल्लंघन करके कूदकर बड़े होनेकी चेष्टा न करनी चाहिये। इस प्रकार अनुष्ठानमें रत होनेसे संसिद्धि ( परम कल्याण ) लाभ होती है। किस प्रकारसे कल्याण लाभ होता है उसे पर श्लोकमें ही कहा जाता है, सुनो ॥४५॥
यतः प्रवृत्तिभूतानां येन सर्वमिदं ततम् ।
स्वकर्मणा तमभ्यर्य सिद्धि विन्दति मानवः ॥४६॥ अन्वयः। यतः ( अन्तर्यामिणः परमेश्वरात् ) भूतानां (प्राणीनां ) प्रवृत्तिः ( उत्पत्तिः चेष्टा वा भवति ), येन ( आत्मना ) इदं सर्व ( विश्वं ) ततं ( व्याप्तं ), तं ( ईश्वरं ) स्वकर्मणा अभ्यर्च्य ( पूजयित्वा ) मानवः ( मनुष्यः ) सिद्धि विन्दति (लभते ) ॥४६॥